अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
जो मनसबदार पालकी के साथ-साथ चल रहा था उसकी आँखों में इस हिन्दू सरदार को देखते ही खून उतर आया। परन्तु इस तरुण राजा ने उसकी तनिक भी परवाह नहीं की। अपने घोड़े को एड़ देकर और चार कदम आगे बढ़ वह पालकी के पीछे चलगे लगा।
किला और शहर के बीच-आज जहाँ दिल्ली का रेलवे स्टेशन और कम्पनी बाग है, वहाँ इस बेगम ने एक सराय बनवायी थी। यह सराय उस समय भारतवर्ष-भर में श्रेष्ठ इमारत थी। इसकी सारी इमारतें दुमंजिली थीं और ऊपर बड़े-बड़े आलीशान सुसज्जित कमरे बने थे, जिनमें देश-देश के लोग ठहरते और तफरीह करते थे। सराय में नहाने के लिए पक्के हौज, नल और बड़े-बड़े बावर्चीखाने बने थे। इस सराय के इन्तज़ाम के लिए बेगम ने योग्य कर्मचारी नियुक्त किये थे। इस समय तक भी सराय समूची बनकर तैयार नहीं हो पायी थी और हज़ारों कारीगर-मिस्त्री उसमें चित्र-विचित्र काम कर रहे थे।
इस वक्त बेगम की सवारी इसी सराय की ओर जा रही थी। इसकी सूचना सराय के दारोगा को भी मिल चुकी थी और वहाँ बेगम की अवाई की धूमधाम मची थी। सब राह-बाट साफ करके छिड़काव किया गया था। बहुत-से खोजे, दास-दासी अपने-अपने काम में लगे थे। इस समय सराय का वह भाग जहाँ बेगम तशरीफ़ रखने वाली थीं और जहाँ एक खूबसूरत छोटा-सा बगीचा था, भली भाँति सजाया गया था। बगीचे के बीच संगमरमर की बारहदरी थी, वहीं बेगम की सवारी उतरी।
शाम की भीनी सुगन्ध हवा में भर रही थी। बाग के माली ने सारी बारहदरी को फूलों से सजाया था। हुजूर शहज़ादी आज रात इसी बारहदरी में आराम और तफरीह करना चाहती थीं। ख्वाजासरा और बांदियों ने मसनद, चाँदनी और गाव तकिये लगा दिये। बेगम मसनद पर लुढ़क गयीं। कुछ देर आराम करने पर बेगम ने दूल्हा भाई को हुक्म दिया, "वह हिन्दू राजा, जो सवारी के साथ है, उसे हुक्म दो कि हमारे यहाँ मुकीम रहने तक अपने पहरे-चौकी रखे और अमीर नजावत खाँ सराय के बाहरी हिस्से में अपने सिपाहियों सहित चला जाए!”
शहज़ादी का हुक्म दोनों उमरावों को पहुँचा दिया गया। दोनों ने भेद-भरी निगाहों से एक-दूसरे को देखा। तलवार की मूठ पर दोनों का हाथ गया और क्षण-भर दोनों एक-दूसरे को खूनी नज़रों से देखने लगे। नजावत खाँ ने बालिश्त-भर तलवार म्यान से खींच ली और गुस्से-भरी आवाज़ में शेर की तरह गुर्राकर कहा, "खुदा की कसम, मैं यह हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकता कि एक काफ़िर को मुसलमान के बराबर रुतबा दिया जाए। मैं चाहता हूँ कि इसी वक्त तेरे दो टुकड़े करके तेरा गोश्त कुत्तों को खिला दूँ।”
"चाहता तो मैं भी यही हूँ कि इसी वक्त तुम्हारा सर भुट्टे-सा उड़ा दूँ। मगर बेहतर यही है कि अभी आप जनाब शहज़ादा नजावतअली खाँ बहादुर, चुपचाप अपनी नौकरी ठण्डे-ठण्डे बजा लाएँ, जैसा कि हूजूर शहज़ादी का हुक्म हुआ है और सुबह तक भी आपके यही इरादे और दमखम रहे, तो फिर हम दोनों को अपने-अपने इरादे पूरे करने की बहुत गुन्जाइश है!”
नजावत खाँ ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। वह गुस्से से होंठ चबाता हुआ चला गया। राव छत्रसाल तनिक हटकर अपने घोड़े पर बैठ गया।
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