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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

चाँदनी रात थी और बारहदरी के बाहरी चमन में शहज़ादी अपनी खास लौंडियों के बीच मसनद पर पड़ी अपनी प्रिय अंगूरी शराब पी रही थीं। यों तो उसके लिए फ़ारस, काश्मीर और काबुल से कीमती शीराजी और इस्तम्बोल मँगायी जाती थी, परन्तु उसकी अपने शौक की प्रिय वस्तु वह थी, जो खास उसीकी नज़रों के सामने अंगूर में गुलाब और बहुत-सी मेवे डालकर बनायी जाती थी। यह अति सुगन्धित और स्वादिष्ट होती थी और बेगम जब खुश होती-इस शराब के जाम पर जाम चढ़ाती थी।

आज वह खुश तो न थी; बहुत-सी चिन्ताएँ उसके मस्तिष्क को परेशान कर रही थीं-इतनी बड़ी मुगल सल्तनत की राजनीति में वह सक्रिय भाग लेती थी, उसीका सरदर्द थोड़ा न था, परन्तु इस समय तो उसे अपनी ही चिन्ता ने आ घेरा था। इसीसे मुक्त होने के लिए वह किले के भारी वातावरण को छोड़ यहाँ चली आयी थी।

अकबर बादशाह के समय ही से यह दस्तूर चला आ रहा था कि मुगल बादशाहों के खानदान की शहज़ादियाँ शादी नहीं कर पाती थीं, इससे इनके गुप्त प्रेम होते रहते और मुगल हरम का वातावरण हमेशा दूषित रहता था।

परन्तु दारा शहज़ादी का विवाह नजावत खाँ से करने की इच्छा प्रकट कर चुका था। वह शहज़ादी को प्रेम करता था। बहुत दिन से बल्ख-बुखारा और मुगल खानदान में चख-चख चल रही थी। वह चाहता था कि यदि दोनों खानदानों में रिश्ता हो जाए तो यह पुरानी शत्रुता भी जाती रहे। परन्तु इस शादी में बहुत बाधाएँ थीं। प्रथम तो बादशाह ही यह शादी करने की राजी नहीं होते थे। उन्हें उनके साले शाइश्ता खाँ ने समझा दिया था कि यदि यह शादी कर दी गयी तो अवश्य ही नजावत खाँ को शहजादों का रुतबा देना पड़ेगा, जब कि इस समय वे चाकर से अधिक दर्जा नहीं रखते हैं। फिर शाहे-बलख के लड़ने के मंसूबे भी अभी थे और इसके राजनीतिक कारण बने ही हुए थे।

दूसरी बड़ी बाधा यह थी कि शहज़ादी हिन्दू राजा बून्दी के छत्रसाल को चाहती थी। उन दिनों राजपूतों से मुगल खानदान में रिश्ते होते थे। अभी तक अनेक राजाओं की बेटियाँ मुगल हरम में आयी थीं, परन्तु कोई मुगल शहज़ादी किसी राजपूत के घर नहीं गयी थी। अब तक किसी राजपूत सरदार का खुल्लमखुल्ला शादी करके रनिवास में एक शहज़ादी को ले जाना बहुत ही कठिन और अव्यवहार्य था, फिर मुगल अदब-कायदे तो ऐसे थे कि बड़े से बड़े हिन्दू राजा को मुगल शहज़ादियों के सामने भी उसी तरह झुकना पड़ता था, जैसे बादशाह के सामने। ऐसी हालत में इन शादियों से मुगल रुआब में भी कमी आने को थी। परन्तु प्रीति की कटारी का घाव जब खा लिया जाता है तो फिर इन सब बातों पर विचार नहीं किया जाता। शहज़ादी इस राजपूत के प्रेम में दीवानी थी और यह बात नजावत खाँ और छत्रसाल दोनों ही जानते थे, इसीसे वे एक-दूसरे को खूनी आँखों से देखते थे।

इसी मामले में एक तीसरा शिगूफा भी था-दूल्हा भाई, जो शायद अभी बेगम से उम्र में कुछ ही कम था, परन्तु बेगम की मुहब्बत का दम भरता था। वह इतना मूर्ख था कि शहज़ादी के विनोद और कृपाओं को प्यार की नज़र से देखता था। वह सोचा करता था कि बेगम से शादी कर लेने पर सम्भव है वही बादशाह बन जाए। कभी-कभी वह डीगें भी हाँकता और उसकी हँसी भी बहुत होती थी।

एक बार शहज़ादी ने उसे खानजादा का खिताब दिया और उसकी जिद से उसे इलम और शाही मरातिब रखने का अधिकार भी दिया तथा उसे शाही सिपहसालारों की भाँति पदवी देकर सवारों का सरदार बना दिया था। एक दिन वह बेगम के महल को जा रहा था कि सामने से महावत खाँ सिपहसालार आते मिल गये। जब वे दोनों पास-पास से गुजरे, तो जुलूस के सैनिकों में झगड़ा हो गया। उधर महावत खाँ ने उसके झण्डे को देखा तो अपना इलम तह कर लिया और बिना झण्डे के शाही हुजूर में जा पहुँचा। जब बादशाह को इसकी सूचना मिली, तो उसने इसका कारण पूछा। महावत खाँ ने कहा, "हुजूर जहाँपनाह, हमारा समय तो बीत चुका। अब तो मरतब इलम उड़ाते हैं।” जब बादशाह को सब बातें मालूम हुई, तो क्रोध में आकर उन्होंने खानज़ादा साहब का इलम तुड़वा दिया। खानज़ादा ने शहज़ादी के सामने बहुत रोना रोया पर उसका कोई फल न निकला। फिर भी वह शहज़ादी का प्रिय पार्षद बना हुआ था और शहज़ादी उस सुन्दर मूर्ख को अपनी इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम बनाये हुए थी। वह शहज़ादी के खानगी मामलों का दारोगा अफ़सर था।

दैवयोग ही कहिए कि इस समय शहज़ादी के ये तीनों चाहने वाले एक ही स्थान पर हाजिर थे। तीनों ही इस समय शहज़ादी की विशेष कृपा के इच्छुक थे।

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