अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
बारहदरी समूची संगमरमर की बनी थी। उसका फर्श काले और सफेद पत्थर का बना था। दीवारों पर रंग-बिरंगे पत्थरों की सुन्दर पच्चीकारी की गयी थी। थोड़ी ऊँचाई पर कदे-आदम आईने लगे थे। फर्श पर नर्म ईरानी कालीन बिछे थे। उनपर हाथी दाँत के काम का छपरखट था, जिसके ऊपर जरवफ्त का चंदोवा तना था, जिसमें मोतियों की झालर टँगी थी। पलंग पर मखमली गद्दा, तोशक और मसनदें लगी थीं, जिनपर गिहायत नफीस जरदोजी को काम हो रहा था। सामने करीने से चौकियों पर ढेर के ढेर फूल, इत्र और अनेक प्रकार की सुगन्ध तथा श्रृंगार की वस्तुएँ रखी हुई थीं।
मसनद पर अलसायी देह लिये शहज़ादी अकेली बैठी थी। बाहर नंगी तलवार लिये तातारी बांदियों का पहरा था। इसी समय हँसते हुए दूल्हा भाई ने आकर सोने के प्याले में शीराजी पेश की।
बेगम ने आँखें तरेरकर कहा, "यह क्या? वह हमारी पसन्द की चीज़ अंगूरी शराब कहाँ है?”
"हजरत, एक प्याला इस शीराजी का भी तो पहले नोश फर्मा कर ईरान के बादशाह को ममनून कीजिए जिसने यह कीमती शराब बड़े शौक से काबुल के अमलदार के मार्फत हुजूर की खिदमत में भेजी है।”
"यह क्या हमारी उस नियामत से बढ़कर है जिसे खास हमारे हकीम अंगूर में गुलाब डालकर और मुकब्बी अदबियात मिलाकर तैयार करते हैं? तुम तो उस नियामत को चख चुके ही दूल्हा मियाँ!”
"हुजूर के तुफैल से, वह नायाब शराब मैंने पी है। बेशक उसका मुकाबला तो आबेहयात भी नहीं कर सकता! मगर हुजूर शहज़ादी, ज़रा उस कम्बख्त शाहे-ईरान का भी तो दिल रखिए। बड़ी-बड़ी उम्मीदें बाँधकर उस मरदूद ने यह कीमती तोहफा भेजा है।”
शहज़ादी ने हँसकर कहा, "शाहे-अब्बास ऐसा बादशाह नहीं है जिसे मरदूद कहा जाए। बस, हमें उसकी खातिर बसरोचश्म मंजूर है! इसके अलावा हम तुम्हें भी ममनून किया चाहती हैं। इसीसे बखुशी यह प्याला मंजूर करती हैं!”
"शुक्र है खुदा का कि शहज़ादी को इस गुलाम का भी इस कदर ख़याल है, मैं तो एकदम नाउम्मीद हो गया था!”
"किस अम्र में?"
"जांबख्शी पाऊँ, तो अर्ज करूं कि हुजूर शहज़ादी की नज़रे-इनायत इस कमनसीब पर अब पहले जैसी नहीं हैं।”
"तो दूल्हा मियाँ, अब तुम बड़े भी हो गये, बच्चे नहीं हो! फिर हम तो तुमसे खुश हैं!”
शहज़ादी ने प्याला खाली किया और दूल्हा मियाँ ने उसे दुबारा भरकर शहज़ादी के आगे बढ़ाते हुए कहा, "बेअदबी माफ हो बेगम, गुलाम बड़ा हो तो यह खुदा की कारस्तानी है, कुछ गुलाम की तकसीर नहीं! और अब तो गुलाम को यह समझ भी आ गयी है कि हुजूर जो इस नाचीज पर खुश होने की इनायत करती हैं, वह बहुत नाकाफी है! जांनिसार ज़्यादा की उम्मीद रखता है।”
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