गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम भगवन्नामस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।
ऐसे किसीका विचार हो, रुचि न हो तो नाम-जप करना शुरू कर दे इस भावसे कि यह
भगवान्का नाम है। हमें अच्छा नहीं लगता है, हमारी अरुचि है तो हमारी जीभ खराब
है। यह नाम तो अच्छा ही है—ऐसा भाव रखकर नाम लेना शुरू कर दें और भगवान्से
प्रार्थना करें कि हे नाथ ! आपके चरणों में रुचि हो जाय, आपका नाम अच्छा लगे।
ऐसे भगवान्से कहता रहे, प्रार्थना करता रहे तो ठीक हो जायगा।
‘श्रीशेशयोर्भेदधीः' -(३) भगवान् विष्णुके भक्त हैं तो शंकरकी निन्दा न करें।
दोनोंमें भेद-बुद्धि न करें। भगवान् शंकर और विष्णु दो नहीं हैं-
कलयति कश्चिन्मूढो हरिहरभेदं विना शास्त्रम्॥
भगवान् विष्णु और शंकर इन दोनोंका स्वभाव एक है। परन्तु भक्तोंके भावोंके भेदसे भिन्नकी तरह दीखते हैं। इस वास्ते कोई मूढ़ दोनोंका भेद करता है तो वह शास्त्र नहीं जानता। दूसरा अर्थ होता है ‘ह हरणे' धातु तो एक है पर प्रत्यय-भेद है। हरि और हर ऐसे प्रत्यय-भेदसे भिन्नकी तरह दीखते हैं। ‘हरि-हर'के भेदको लेकर कलह करता है वह ‘विना शास्त्रम्' पढ़ा लिखा नहीं है और ‘विनाशाय अस्त्रम्'-अपना नाश करनेका अस्त्र है।
भगवान् शंकर और विष्णु इन दोनोंका आपसमें बड़ा प्रेम है। गुणोंके कारणसे देखा जाय तो भगवान् विष्णुका सफेद रूप होना चाहिये और भगवान् शंकरका काला रूप होना चाहिये; परन्तु भगवान् विष्णुका श्याम वर्ण है और भगवान् शंकरका गौर वर्ण है, बात क्या है। भगवान् शंकर ध्यान करते हैं भगवान् विष्णुका और भगवान् विष्णु ध्यान करते हैं भगवान् शंकरका। ध्यान करते हुए दोनोंका रंग बदल गया। विष्णु तो श्यामरूप हो गये और शंकर गौर वर्णवाले हो गये‘कर्पूरगौरं करुणावतारम्।'
अपने ललाटपर भगवान् रामके धनुषका तिलक करते हैं शंकर और शंकरके त्रिशूलका तिलक करते हैं रामजी। ये दोनों आपसमें एक-एकके इष्ट हैं। इस वास्ते इनमें भेद-बुद्धि करना, तिरस्कार करना, अपमान करना बड़ी गलती है। इससे भगवन्नाम महाराज रुष्ट हो जायेंगे। इस वास्ते भाई, भगवान्के नामसे लाभ लेना चाहते हो तो भगवान् विष्णुमें और शंकरमें भेद मत करो।
कई लोग बड़ी-बड़ी भेद-बुद्धि करते हैं। जो भगवान् कृष्णके भक्त हैं, भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे कहते हैं कि हम शंकरको दर्शन ही नहीं करेंगे। यह गलतीकी बात है। अपने तो दोनोंका आदर करना है। दोनों एक ही हैं। ये दो रूपसे प्रकट होते हैं-'सेवक स्वामि सखा सिय पी के।'
'अश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिराम्'–वेद, शास्त्र और सन्तमहापुरुषोंके वचनोंमें अश्रद्धा करना अपराध है।
(४) जब हम नाम-जप करते हैं तो हमारे लिये वेदोंके पठनपाठनकी क्या आवश्यकता है? वैदिक कर्मोकी क्या आवश्यकता है। इस प्रकार वेदोंपर अश्रद्धा करना नामापराध है।
(५) शास्त्रोंने बहुत कुछ कहा है। कोई शास्त्र कुछ कहता है तो कोई कुछ कहता है। उनकी आपसमें सम्मति नहीं मिलती। ऐसे शास्त्रोंको पढ़नेसे क्या फायदा है ? उनको पढ़ना तो नाहक वाद-विवादमें पड़ना है। इस वास्ते नाम-प्रेमीको शास्त्रोंका पठन-पाठन नहीं करना चाहिये, इस प्रकार शास्त्रोंमें अश्रद्धा करना नामापराध है।
(६) जब हम नाम-जप करते हैं तो गुरु-सेवा करनेकी क्या आवश्यकता है? गुरुकी आज्ञापालन करनेकी क्या जरूरत है ? नाम-जप इतना कमजोर है क्या ? नाम-जपको गुरु-सेवा आदिसे बल मिलता है क्या ? नाम-जप उनके सहारे है क्या ? नाम-जपमें इतनी सामर्थ्य नहीं है जो कि गुरुकी सेवा करनी पड़े? सहारा लेना पड़े? इस प्रकार गुरुमें अश्रद्धा करना नामापराध है।
वेदोंमें अश्रद्धा करनेवालेपर भी नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते। वे तो श्रुति हैं, सबकी माँ-बाप हैं। सबको रास्ता बतानेवाली हैं। इस वास्ते वेदोंमें अश्रद्धा न करे। ऐसे शास्त्रों में पुराण, शास्त्र, इतिहासमें भी अश्रद्धा न करे, तिरस्कार-अपमान न करे। सबका आदर करे। शास्त्रों में, पुराणों में, वेदोंमें, सन्तोंकी वाणीमें, भगवान्के नामकी महिमा भरी पड़ी है। शास्त्रों, सन्तों आदिने जो भगवन्नामकी महिमा गायी है, यदि वह इकट्ठी की जाय तो महाभारतसे बड़ा पोथा बन जाय। इतनी महिमा गायी है, फिर भी इसका अन्त नहीं है। फिर भी उनकी निन्दा करे और नामसे लाभ लेना चाहे तो कैसे होगा ?
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