गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम भगवन्नामस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।
१९९३ वि० सं०में हमलोग तीर्थयात्रामें गये थे तो काठियावाड़में एक भाई मिला।
उसने हमको पाँच-सात वर्षोंकी उम्र बतायी। अरे भाई ! तुम इतने बड़े दीखते हो, तो
क्या बात है? उस भाईने कहा-मैं सात वर्षोंसे ही ‘कल्याण' मासिक पत्रका ग्राहक
हूँ। जबसे इधर रुचि हुई, तबसे ही मैं अपनेको मनुष्य मानता हूँ। पहलेकी उम्रको
मैं मनुष्य मानता ही नहीं, मनुष्यके लायक काम नहीं किया। उद्दण्ड, उच्छृङ्खल
होते रहे। तो बोलो, कितना विलक्षण लाभ होता है ? ‘तीर्थयात्रा-ट्रेन
गीताप्रेसकी है'–ऐसा सुनते तो लोग परिक्रमा करते। जहाँ गाड़ी खड़ी रहती, वहाँके
लोग कीर्तन करते और स्टेशनों-स्टेशनोंपर कीर्तन होता कि आज तीर्थयात्राकी गाड़ी
आनेवाली है।
यह महिमा किस बातकी है? यह सब भगवान्को, भगवान्के नामको लेकर है। आज भी हम
गोस्वामीजीकी महिमा गाते हैं, रामायणजीकी महिमा गाते हैं, तो क्या है? भगवान्का
चरित्र है, भगवान्का नाम है। गोस्वामीजी महाराज भी कहते हैं- 'एहि महँ रघुपति
नाम उदारा।' इसमें भगवान्का नाम है जो कि वेद, पुराणका सार है। इस कारण
रामायणकी इतनी महिमा है। भगवान्की महिमा, भगवान्के चरित्र, भगवान्के गुण होनेसे
रामायणकी महिमा है। जिसका भगवान्से सम्बन्ध जुड़ जाता है, वह विलक्षण हो जाता
है। गङ्गाजी सबसे श्रेष्ठ क्यों हैं? भगवान्के चरणोंका जल है। भगवानूके साथ
सम्बन्ध है। इस वास्ते भगवान्के नामकी महिमामें अर्थवादकी कल्पना करना गलत है।
‘नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ'-(८) निषिद्ध आचरण करना और (९) विहित
कर्मोंका त्याग कर देना। जैसे, हम नाम-जप करते हैं तो झूठ-कपट कर लिया,
दूसरोंको धोखा दे दिया, चोरी कर ली, दूसरोंका हक मार लिया तो इसमें क्या पाप
लगेगा। अगर लग भी जाय तो नामके सामने सब खत्म हो जायगा; क्योंकि नाममें पापोंके
नाश करनेकी अपार शक्ति है—इस भावसे नामके सहारे निषिद्ध आचरण करना नामापराध है।
भगवान्का नाम लेते हैं। अब सन्ध्याकी क्या जरूरत है ? गायत्रीकी क्या जरूरत है
? श्राद्धकी क्या जरूरत है ? तर्पणकी क्या जरूरत है ? क्या इस बातकी जरूरत है?
इस प्रकार नामके भरोसे शास्त्र-विधिका त्याग करना भी नाम महाराजका अपराध है। यह
नहीं छोड़ना चाहिये। अरे भाई ! यह तो कर देना चाहिये। शास्त्रने आज्ञा दी है।
गृहस्थोंके लिये जो बताया है, वह करना चाहिये।
तावत् कर्तुं न शक्नोति पातकं पातकी जनः॥
इस विषयमें हमने एक कहानी सुनी है। एक कोई सज्जन थे। उनको अंग्रेजोंसे एक अधिकार मिल गया था कि जिस किसीको फाँसी होती हो, अगर वहाँ जाकर खड़ा रह जाय तो उसके सामने फाँसी नहीं दी जायगी-ऐसी उसको छूट दी हुई थी। उसकी लड़की जिसको ब्याही थी, वह दामाद उद्दण्ड हो गया। चोरी भी करे, डाका भी डाले, अन्याय भी करे। उसकी स्त्रीने मना किया तो वह कहता है क्या बात है? तेरा बाप, अपनी बेटीको विधवा होने देगा क्या? उसका जवाँई हूँ। उस लड़कीने अपने पिताजीसे कह दिया-‘पिताजी ! आपके जवाँई तो आजकल उद्दण्ड हो गये हैं? कहना मानते हैं नहीं। ससुरने बुलाकर कहा कि ऐसा मत करो, तो कहने लगा-‘जब आप हमारे ससुर हैं, तो मेरेको किस बातका भय है। ऐसा होते-होते एक बार उसका जवाँई किसी
अपराधमें पकड़ा गया और उसे फाँसीकी सजा हो गयी। जब लड़कीको पता लगा तो उसने आकर कहा—पिताजी ! मैं विधवा हो जाऊँगी। पिताजी कहते हैं-बेटी ! तू आज नहीं तो कल, एक दिन विधवा हो जायगी। उसकी रक्षा मैं कहाँतक करूं। मेरेको अधिकार मिला है, वह दुरुपयोग करनेके लिये नहीं है। बेटीके मोहमें आकर पापका अनुमोदन करूं, पापकी वृद्धि करूं। यह बात नहीं होगी। वे नहीं गये।।
ऐसे ही नाम महाराजके भरोसे कोई पाप करेगा तो नाम महाराज वहाँ नहीं जायेंगे। उसका वज्रलेप पाप होगा, बड़ा भयंकर पाप होगा।
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