गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम भगवन्नामस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।
कोई १९६०-६५ विक्रम संवत्की बात होगी, हमें मिति ठीक याद नहीं है। मैंने एक
सन्तका पत्र पढ़ा था, जो कि उन्होंने अपने प्रेमीके प्रति दिया हुआ था। छोटा
कार्ड था। पहले छोटा कार्ड हुआ करता था। एक-दो पैसेके कार्डमें मैंने समाचार
पढ़ा था। अपने सेवकके प्रति लिखा था-‘एक नाम छूट जाय, इतना काल-समय अगर खाली
चला जाय, तो ब्याहा हुआ बड़ा बेटा मरे, उससे भी ज्यादा शोक होना चाहिये।' राम !
राम ! राम ! गजब हो गया ! यह लिखा था उसमें। ब्याहा हुआ लड़का मर जाय तो
हृदयमें एक चोट पहुँचती है कि ऐसा कमानेवाला सुपुत्र बेटा मर गया तो उससे भी
ज्यादा दुःख होना चाहिये एक नाम उच्चारण करें इतना खाली समय जानेपर। क्योंकि जो
लड़के छोटे हैं वे बड़े हो जायँगे। गृहस्थोंके और फिर पैदा भी हो जायँगे।
परन्तु समय थोड़े ही पैदा हो जायगा। जो समय खाली गया, वह जो घाटा पड़ा, वह तो
पड़ ही गया। इस वास्ते हमें सावधानी रखनी चाहिये कि हमारा समय बरबाद न हो
जाय-‘जो दिन जाय भजनके लेखे, सो दिन आसी गिणतीमें वह दिन गिनतीमें आवेगा। बिना
भजनके जो समय गया, उसकी कोई कीमत नहीं, वह तो बरबाद हो गया। बड़ा भारी नुकसान
हो गया, घाटा लग गया बड़ा भारी !
अबतक जो समय संसारमें लग गया, वह तो लग ही गया। अब सावधान हो जायँ। सज्जनो !
भाइयो-बहिनो ! दिनमें थोड़ी-थोड़ी देरीमें देखो कि नाम याद है कि नहीं। घरमें
जगह-जगह भगवान्का नाम लिख दो और याद करो। भगवान्की तस्वीर इस भावसे सामने रख दो
कि वे हमें याद आते रहें। हमें भगवान्को याद करना है। घरमें भगवान्का चित्र रखो
पर इस भावनासे रखो कि तस्वीरपर हमारी दृष्टि पड़ते ही हमें भगवान् याद आयें।
ऐसे भावसे रखकर सुन्दर-सुन्दर नाम लिख दो। जहाँ ज्यादा दृष्टि पड़ती हो, वहाँ
नाम लिख दो।
ऐसे गृहस्थ घरको मैंने देखा है। सीढ़ीसे उतरते हैं, तो वहाँ नाम लिखा हुआ।
सीढ़ीसे ऊपर चढ़ते हैं तो सामने नाम लिखा हुआ। जहाँ घूमते-फिरते हैं, वहाँ नाम
लिखा हुआ। वे नाम इस वास्ते लिखे कि मैं भूल न जाऊँ, प्रभुके नामकी भूल न हो
जाय। ऐसी सावधानी रखो सज्जनो ! यह असली काम है असली ! बड़ा भारी लाभ है
इसमें‘भक्ति कठिन करूरी जाण। इसमें नफा घणा नहीं हाण ॥' इसमें नुकसान है ही
नहीं। केवल नफा-ही-नफा है। बस, फायदा-ही-फायदा है। इस प्रकार अपना सब समय
सार्थक बन जाय- 'एक भी श्वास खाली खोय ना खलक बीच।'
संसारके भीतर जो समय खाली चला गया तो बड़ा भारी नुकसान हो गया। श्रीदादूजी
महाराज फरमाते हैं- 'दादू जैसा नाम था तैसा लीन्हा नाय।' इस नामकी जितनी महिमा
है, वैसा नाम नहीं लिया, जब कि उन्होंने उम्रभरमें क्या किया ? नाम ही तो जपा।
परन्तु उनको लगता है कि नाम जैसा जपना चाहिये था वैसा नहीं जपा अर्थात् मुखसे
जितना नाम लेना था, उतना नहीं लिया। अब ‘देह हलावा हो रहा' देहमेंसे बस, प्राण
गये....गये....ऐसी उनकी दशा हो रही है, पर वे कहते हैं-'हंस रही मन माय'
भगवान्का नाम और लेते, और लेते। जैसे, धन कमानेवालेका लोभ जाग्रत् होता है तो
उसके पास लाखों, करोड़ों रुपये हो जानेपर भी फिर नये-नये कारखाने खोलकर और धन
ले लू—ऐसा लोभ बढ़ता ही रहता है। यह धन तो यहीं रह जायगा और हमारा समय बरबाद हो
जायगा । यदि भगवान्में लग जाओगे तो नामका वैसे लोभ लगेगा जैसे सन्तोंने
प्रार्थना की है कि हे भगवान् ! हमारी एक जिह्वासे नाम लेते-लेते तृप्ति नहीं
हो रही है, इस वास्ते हमारी हजारों जिह्वा हो जायँ, जिनसे मैं नाम लेता ही चला
जाऊँ। उनकी ऐसी नामकी लालसा बढ़ती ही चली जाती है।
मेरेको एक सज्जन मिले थे। वे कहते थे कि मैं राम-राम करता हूँ तो राम-नामका
चारों तरफ चक्कर दीखता है। ऊपर आकाशमें और सब जगह ही राम-राम दीखता है। पासमें,
चारों तरफ, दसों दिशाओं में नाम दीखता है। पृथ्वी देखता हूँ तो कण-कणमें नाम
दीखता है, राम-राम लिखा हुआ दीखता है। कोई जमीन खोदता है तो उसके कण-कणमें नाम
लिखा हुआ दीखता है। ऐसी मेरी वृत्ति हो रही है कि सब समय, सब जगह, सब देश, सब
काल, सब वस्तु और सम्पूर्ण व्यक्तियों में राम-नाम परिपूर्ण ही रहा है। यह
कितनी विलक्षण बात है ! कितनी अलौकिक बात है !
भगवान् रामजीने लंकापर विजय कर ली। अयोध्यामें आकरके गद्दीपर विराजमान हुए तो
उस समय राजाओंने रामजीको कई तरहकी भेंट दी। विभीषणने रावणके इकड़े किये हुए
बहुत कीमती-कीमती रत्नोंकी
माला बनायी थी। माला बनानेमें यही उद्देश्य था कि जब महाराजका राज्यतिलक होगा,
तब मैं भेंट करूंगा। इस तरहसे विभीषण वह माला लाया और समय पाकर उसने महाराजके
गले में माला पहना दी। महाराजने देखा कि भाई, गहनोंकी शौक स्त्रियोंके ज्यादा
होती है, ऐसे विचारसे रामजीने वह माला सीताजीको दे दी। सीताजीको जब माला मिली
तो उनके मनमें विचार आया कि मैं यह माला किसको हूँ महाराजने तो मेरेको दे दी।
अब मेरा प्यारा कौन है ? हनुमान्जी पासमें बैठे हुए थे। हनुमान्जी महाराजपर
सीतामाताका बहुत स्नेह था, बड़ा वात्सल्य था और हनुमानजी महाराज भी माँके चरणों
में बड़ी भारी भक्ति रखते थे। माँने हनुमान्जीको इशारा किया तो चट पासमें चले
गये। माँने हनुमान्जीको माला पहना दी। हनुमान्जी बड़े खुश हुए, प्रसन्न हुए। वे
रत्नोंकी ओर देखने लगे। जब माँने चीज दी है तो इसमें कोई विशेष बात है—ऐसा
विचार करके एक मणिको दाँतोंसे तोड़ दिया, पर उसमें भगवान्का नाम नहीं था तो उसे
फेंक दिया। फिर दूसरी मणि तोड़ने लगे तो वहाँपर बड़े-बड़े जौहरी बैठे थे।
उन्होंने कहा-‘बन्दरको तो अमरूद देना चाहिये ! यह इन रत्नोंका क्या करेगा ?
रत्नोंको तो यह दाँतोंसे फोड़कर फेंक रहा है। किसीने उनसे पूछा-‘क्यों फोड़ते
हो ? क्या बात है? क्या देखते हो ?' हनुमान्जीने कहा-'मैं तो यह देखता हूँ कि
इनमें भगवान्का नाम है कि नहीं। इनमें नाम नहीं है तो ये मेरे क्या कामके ? इस
वास्ते इनको फोड़कर देख लेता हूँ और नाम नहीं निकलता तो फेंक देता हैं।'
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