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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम

भगवन्नाम

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 914
आईएसबीएन :81-293-0777-4

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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।

स्वयं भगवान् चेत कराते हैं।

एक बड़े विरक्त सन्त थे। वे नाम जपते थे। कौड़ी-पैसा लेते नहीं थे, रखते नहीं थे, छूते ही नहीं थे। वे कहते थे कि बहुत बार ऐसा होता है, जब मैं सोता हूँ तो मुझे ऐसे प्यारसे उठाते हैं, जैसे कोई माँ उठाती हो। गरदनके नीचे हाथ देकर चट उठा देते हैं। मेरेको पता ही नहीं लगता कि न जाने किसने मेरेको बैठा दिया। तो नाम महाराज भगवान्की याद दिलाते हैं। मैं खुद अनुमान करता हूँ, आपमें भी कोई नाम-प्रेमी है, उसके भी ऐसा होता होगा। इसमें कोई गृहस्थका कारण नहीं है, कोई साधुका कारण नहीं है, कोई भाईका कारण नहीं, कोई बहनका कारण नहीं कोई भी भाई-बहन इसका जप करेंगे, उसके भी यह बात हो जायगी। कभी भगवान्की आवाज आ जाती है। आप कभी पाठ, जप करते हैं। भगवान्के भजनमें लगे हैं, मनमें जपनेकी लगन है और आपको कहीं नींद आने लगेगी तो किवाड़ जोरसे पड़ाकसे पटकेगा, जैसे कोई हवा आ गयी हो अथवा कोई हल्ला करेगा तो आपकी नींद खुल जायगी। कोई अचानक ऐसा शब्द होगा तो चट नींद खुल जायगी। यह तो नाम महाराज चेताते हैं, भगवान् चेत कराते हैं कि सोते कैसे हो ? नाम जपते हो कि नींद ले रहे हो ? भगवान् बड़ी भारी मेहनत करके, आपके ऊपर कृपा करके आपकी निगरानी रखते हैं, आप शरण हो तो जाओ।

तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-'बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु’ अनेक जन्मोंकी बिगड़ी हुई बात, आज सुधर जाय और आज भी अभी-अभी इसी क्षण, देरीका काम नहीं, क्योंकि ‘होहि राम को नाम जपु’ तुम रामजीके होकरके अर्थात् मैं रामजीका हूँ और रामजी मेरे हैं—ऐसा सम्बन्ध जोड़ करके नाम जपो। पर इसमें एक शर्त है-'एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥' संसारमें जितने कुटुम्बी हैं, उनमें मेरा कोई नहीं है। न धन-सम्पत्ति मेरी है और न कुटुम्ब-परिवार ही मेरा है अर्थात् इनका सहारा न हो। 'अनन्यचेताः
सततम्', 'अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्' केवल भगवान् ही मेरे हैं। मैं औरोंका नहीं हैं तथा मेरा और कोई नहीं है—ऐसा अपनापन करके साथमें फिर नाम जपो तो उस नामका भगवान्पर असर होता है। परन्तु कइयोंसे सम्बन्ध रखते हैं, धन-परिवारसे सम्बन्ध रखते हैं और नाम लेते हैं तो नाम न लेनेकी अपेक्षा लेना तो श्रेष्ठ है ही और जितना नाम लेता है, उतना तो लाभ होगा ही; परन्तु वह लाभ नहीं होगा, जो लाभ सच्चे हृदयसे अपना सम्बन्ध परमात्माके साथ जोड़कर फिर नाम लेनेवालेको होता है।

‘तुलसी तजि कुसमाजु' कुसंगका त्याग करो। कुसंग क्या है ? यह धन हमारा है, सम्पत्ति हमारी है—यह कुसंग है। जो धनके लोभी हैं, भोगोंके कामी हैं, उनका संग कुसंग है। जो परमात्मासे विमुख हैं, उनका संग महान् कुसंग है। वह कुसमाज है, उनसे बचो। नहीं तो महाराज ! थोड़ा-सा कुसंग भी आपकी वृत्तियोंको बदल देगा, एकदम भगवान्से विमुख कर देगा। लोग कहते हैं कि भगवद्भजनमें इतनी ताकत नहीं, जो कुसंग इतना असर कर जाय। वह ताकत कुसंगमें नहीं है भाई, प्रत्युत अपने भीतरमें अनेक तरहके जो विरुद्ध संस्कार पड़े हुए हैं, भगवद्भजनके विरुद्ध संस्कार पड़े हैं। वे संस्कार कुसंगसे उभर जाते हैं, जग जाते हैं। इस वास्ते कुसंगका बड़ा असर पड़ता है। आप भजन करोगे तो वे सब संस्कार नष्ट हो जायँगे, फिर- ‘बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥' कभी किसी कारणसे कोई सज्जन कुसंगमें पड़ भी जायँ तो जैसे साँपकी मणि होती है, उसको जहर नहीं लगता। वह तो जहरके ऊपर रखनेसे जहरका शोषण कर लेती है, पर वह खुद जहरीली नहीं होगी। इसी तरहसे आप भजनमें तल्लीन हो जाओगे, तदाकार हो जाओगे तो फिर आपका मन नहीं बदलेगा, आपके ऊपर कुसंगका असर नहीं पड़ेगा। कारण कि आपके अन्तःकरणमें भगवत्-सम्बन्धी संस्कार दृढ़ हो गये, प्रत्युत कुसंगपर आपका असर पड़ेगा, भजनका असर पड़ेगा। परन्तु इतनी शक्ति होनेसे पहले सावधान रहो। कुसंगका त्याग करके और भगवान् के होकर मस्तीसे भगवान्के नामका जप करो। चलते-फिरते, उठते-बैठते हर समय करो। इसमें जब मन लग जाता है, फिर छूटता नहीं।

मैंने एक सज्जन देखे हैं। उनके सफेद ही कपड़े थे, पर वे ‘राम-राम-राम' करते रहते थे। जैसे चलते-चलते कोई पीछे रह जाता है और फिर दौड़कर आ जाता है, इसी तरहसे वे पहले धीरे-धीरे ‘राम-राम-राम' करते थे, फिर बड़ी तेजीसे जल्दी-जल्दी करते थे। रातमें भी उनके पास रहनेका मेरा काम पड़ा है तो वे रातमें भी और दिनमें भी नाम जपते। थोड़ी देर नींद आती, नींद खुलनेपर फिर ‘राम-राम-राम'। हर समय ही ‘राम-राम-राम'। भोजन करते हैं तो ‘राम-राम-राम'। ग्रास लेते हैं तो ‘राम-राम-राम'। किसी समय जाकर देखें तो वे भगवान्का नाम लेते हुए ही मिलते थे। ऐसी लौ लग जायगी तो फिर नहीं छूटेगी। फिर हाथकी बात नहीं है कि आप छोड़ दें। वह एक ऐसा विलक्षण रस है कि एक बार जो लग जाता है तो फिर वह लग ही जायगा। परमात्मतत्त्व-सम्बन्धी बातें हों, परमात्म-सम्बन्धी नाम हो, भगवान्की लीला हो, गुण हो, प्रभाव हो, रहस्य हो–भगवान्का जो कुछ भी समझ आ जायगा, उसको आप छोड़ सकोगे नहीं।

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