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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम

भगवन्नाम

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 914
आईएसबीएन :81-293-0777-4

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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।

भगवन्नाम-जपमें दस अपराध होते हैं। उन दस अपराधोंसे रहित होकर हम नाम जपें। कई ऐसा कहते हैं-

राम नाम सब कोई कहे, दशरथ कहे न कोय।
एक बार दशरथ कहे, तो कोटि यज्ञ फल होय॥

और कई तो ‘दशरथ कहे न कोय' की जगह 'दशऋत कहे न कोय' कहते हैं अर्थात् ‘दशऋत'–दस अपराधोंसे रहित नहीं करते। साथसाथ अपराध करते रहते हैं। उस नामसे भी फायदा होता है। पर नाम महाराजकी शक्ति उन अपराधोंके नाश होने में खर्च हो जाती है। अपराध करता है तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते। वे रुष्ट होते हैं। ये अपराध हमारेसे न हों। इसके लिये ख्याल रखें। दस अपराध बताये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं-

‘सन्निन्दा'-(१) पहला अपराध तो यह माना है कि श्रेष्ठ पुरुषोंकी निन्दा की जाय। अच्छे-पुरुषोंकी, भगवान्के प्यारे भक्तोंकी जो निन्दा करेंगे, भक्तोंका अपमान करेंगे, तो उससे नाम महाराज रुष्ट हो जायेंगे।

इस वास्ते किसीकी भी निन्दा न करें; क्योंकि किसीके भले-बुरेका पता नहीं लगता है।

ऐसे-ऐसे छिपे हुए सन्त-महात्मा होते हैं कि गृहस्थ आश्रममें रहनेवाले, मामूली वर्णमें, मामूली आश्रममें, मामूली साधारण स्त्री-पुरुष दीखते हैं, पर भगवान्के बड़े प्रेमी और भगवान्का नाम लेनेवाले होते हैं। उनका तिरस्कार कर दें, अपमान कर दें, निन्दा कर दें तो कहीं भगवान्के भक्तकी निन्दा हो गयी तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होंगे।

'नाम चेतन कू चेत भाई। नाम चौथे हूँ मिलाई।' नाम चेतन है। भगवान्का नाम दूसरे नामोंकी तरह होता है, ऐसा नहीं है। वह जड़ नहीं है, वह चेतन है। भगवान्का श्रीविग्रह चिन्मय होता है-'चिदानंदमय देह तुम्हारी।' हमारे शरीर जड़ होते हैं, शरीरमें रहनेवाला चेतन होता है। पर भगवान्का शरीर भी चिन्मय होता है। उनके गहने-कपड़े आदि भी चिन्मय होते हैं। उनका नाम भी चिन्मय है। यदि ऐसे चिन्मय नाम महाराजकी कृपा चाहते हो, उसकी मेहरबानी चाहते हो तो जो अच्छे पुरुष हैं और जो नाम लेनेवाले हैं, उनकी निन्दा मत करो।

'असति नामवैभवकथा'-(२) जो भगवन्नाम नहीं लेता, भगवान्की महिमा नहीं जानता, भगवान्की निन्दा करता है, जिसकी नाममें रुचि नहीं है, उसको जबरदस्ती भगवान्के नामकी महिमा मत सुनाओ। वह सुननेसे तिरस्कार करेगा तो नाम महाराजका अपमान होगा। वह एक अपराध बन जायगा । इस वास्ते उसके सामने भगवान्के नामकी महिमा मत कहो। साधारण कहावत आती है-

हरि हीराँ री गाठड़ी, गाहक बिना मत खोल।
आसी ही पारखी, बिकसी मँहगे मोल ॥

भगवान्के ग्राहकके बिना नाम-हीरा सामने क्यों रखे भाई ? वह तो आया है दो पैसोंकी मूंगफली लेनेके लिये और आप सामने रखो तीन लाख रत्न-दाना ? क्या करेगा वह रतनका ? उसके सामने भगवान्का नाम क्यों
रखो भाई ? ऐसे कई सज्जन होते हैं जो नामकी महिमा सुन नहीं सकते। उनके भीतर अरुचि पैदा हो जाती है।

अन्नसे पले हैं, इतने बड़े हुए; परन्तु भीतर पित्तका जोर होता है तो मिश्री खराब लगती है, अन्नकी गन्ध आती है। वह भाता नहीं, सुहाता नहीं। अगर अन्न अच्छा नहीं है, तो इतनी बड़ी अवस्था कैसे हो गयी ? अन्न खाकर तो पले हो, फिर भी अन्न अच्छा नहीं लगता ? कारण क्या है? पेट खराब है। पित्तका जोर है।

तुलसी पूरब पाप ते, हरिचर्चा न सुहात।
जैसे जुरके जोरसे, भोजनकी रुचि जात॥

ज्वरमें अन्न अच्छा नहीं लगता। ऐसे ही पापीको बुखार है, इस वास्ते उसे नाम अच्छा नहीं लगता। तो उसको नाम मत सुनाओ। मिश्री कड़वी लगती है सज्जनो ! और मिश्री कड़वी है तो क्या कुटक, चिरायता मीठा होगा ? परन्तु पित्तके जोरसे जीभ खराब है। पित्तकी परवाह नहीं मिश्री खाना शुरू कर दो। खाते-खाते पित्त शान्त हो जायगा और मिश्री मीठी लगने लग जायगी।

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