गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम भगवन्नामस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।
‘धर्मान्तरैः साम्यम्' (१०) भगवान्के नामकी अन्य धर्मोके साथ तुलना करना
अर्थात् गङ्गास्नान करो, चाहे नाम-जप करो। नाम-जप करो, चाहे गोदान कर दो। सब
बराबर है। ऐसे किसीके बराबर नामकी बात कह दो तो नामका अपराध हो जायगा। नाम
महाराज तो अकेला ही है। इसके समान दूसरा कोई साधन, धर्म है ही नहीं। भगवान्
शंकरका नाम लो चाहे भगवान् विष्णुका नाम लो। ये नाम दूसरोंके समान नाम नहीं
हैं। नामकी महिमा सबमें अधिक है, सबसे श्रेष्ठ है।
इस प्रकार इन दस अपराधोंसे रहित होकर नाम लिया जाय तो वह बड़ी जल्दी उन्नति
करनेवाला होता है। अगर नाम जपनेवालेसे इन अपराधोंमेंसे कभी कोई अपराध बन भी जाय
तो उसके लिये दूसरा प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है, उसको तो ज्यादा नाम-जप
ही करना चाहिये; क्योंकि नामापराधको दूर करनेवाला दूसरा प्रायश्चित्त है ही
नहीं।
नाम महाराजकी तो बहुत विलक्षण, अलौकिक महिमा है, जिस महिमाको स्वयं भगवान् भी
कह नहीं सकते। इस वास्ते जो केवल नामनिष्ठ है; जो रात-दिन नाम-जपके ही परायण
है, जिनका सम्पूर्ण जीवन नाम-जपमें ही लगा है; नाम महाराजके प्रभावसे उनके लिये
इन अपराधोंमेंसे कोई भी अपराध लागू नहीं होता। ऐसे बहुत-से सन्त हुए हैं, जो
शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों आदिको नहीं जानते थे, परन्तु नाम महाराजके
प्रभावसे उन्होंने वेदों, पुराणों आदिके सिद्धान्त अपनी साधारण ग्रामीण भाषामें
लिख लिये हैं। इस वास्ते सच्चे हृदयसे नाममें लग जाओ भाई; क्योंकि यह कलियुगका
मौका है। बड़ा सुन्दर अवसर मिल गया है।
भगवान् प्रिय, मीठे लगें—इसमें खास बात है कि भगवान् अपने हैं। संसार अपना नहीं है। यह शरीर भी अपना नहीं है। यह मिला हुआ है और बिछुड़ जायगा। भगवान् मिले हुए नहीं हैं और बिछुड़नेवाले नहीं हैं। वे सदैव साथ रहनेवाले हैं। भगवान् हमारेसे दूर नहीं हुए हैं, अलग नहीं हुए हैं, हम ही भगवान्से विमुख हुए हैं। वे सदैव हैं और अपने हैं। इस वास्ते भगवान्को अपना मानें। संसारको अपना न मानें। मनुष्योंकी उलटी धारणा हो रही है कि शरीरको, रुपये-पैसोंको, घरको अपना मानते हैं। ये किसीके अपने नहीं हैं। रुपये इतने विरक्त हैं कि किसीके नहीं हैं। जिन रुपयोंके लिये झूठ-कपट करते हो, बेईमानी करते हो, ठगी करते हो, धोखा देते हो, घरवालोंसे लड़ाई करते हो और जिनके लिये ससुर-जवाँईमें लड़ाई हो जाय, भाई-भाईमें लड़ाई हो जाय, मित्र-मित्रमें लड़ाई हो जाय—ऐसे लड़ाई कर लेते हो, धर्म-कर्म छोड़ देते हो, वे रुपये जाते हुए पूछते ही नहीं तुमसे। सलाह भी नहीं लेते और चले जाते हैं। फिर आप एक तरफसे क्यों अपनापन करते हो।
भगवान्को याद न करो तो भी भगवान् आपके हैं। वे आपका पालन-पोषण करते हैं; आपकी रक्षा करते हैं; सब तरहसे आपका कल्याण करते हैं। ऐसे प्रभुको अपना न मानना बड़ी भारी गलतीकी बात है। प्रभु अपने हैं और अपने होनेसे अपनेको मीठे लगते हैं।
‘पन्नगारि सुन प्रेम सम भजन न दूसर आन' प्रेमके समान दूसरा कोई भजन नहीं है।
प्रेम पैदा होता है अपनापन हो जानेसे। अपनापन होते ही प्रियता पैदा होती है। अपना कपड़ा, अपनी वस्तु अपनेको अच्छी लगती है; क्योंकि उसको अपना मान लिया। बालकको अपनी माँ अच्छी लगती है। दूसरी स्त्री सुन्दर भी है। उसके गहने भी बढ़ियां हैं। कपड़े भी बढ़िया हैं। परन्तु अपनी माँ जैसी प्यारी लगती है, मीठी लगती है, वैसी प्यारी, मीठी दूसरी स्त्री नहीं लगती। माँको भी अपना लड़का अच्छा लगता है। वह काला-कलूटा कैसा ही है, सुन्दर नहीं है, तब भी माँको वही अच्छा लगता है। अच्छा लगनेमें कारण क्या है? अपनापन है। यह अपनापन मार्मिक बात है और सार बात है।
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