गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम भगवन्नामस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।
आपलोगोंको मामूली-सी सामान्य बात दीखती होगी, पर मेरेको बहुत देरीसे मिली है।
सुनने-पढ़नेमें भी नहीं मिली और मिली भी तो पकड़ी नहीं गयी। प्रेम कैसे हो ?
उपाय कई पढ़े-सुने, परन्तु असली उपाय है अपनापन। अपनापन होने से प्रेम होता है।
इस वास्ते भगवान्को अपना मानो, संसारको अपना मत मानो; क्योंकि यह संसार अपना
नहीं है।
जो चीज अपनी नहीं है, अपने पास नहीं है उसका उपार्जन करनेमें अभिमान करता है और
अपने में समझता है कि मैंने बड़ा भारी काम कर लिया। निर्धन था और धनवान् बन
गया। अकेला था, बहुत परिवारवाला हो गया। मूर्ख था, पढ़कर पण्डित हो गया।
प्रसिद्धि नहीं थी, अब वाह-वाह हो गयी। अब इसमें ध्यान देना। जो नहीं है, उसकी
प्राप्तिमें मनुष्य बहादुरी मानता है। वास्तवमें जो नहीं है, उसकी प्राप्तिमें
बहादुरी नहीं है; क्योंकि वह चीज पहले नहीं थी, फिर नहीं रहेगी और अन्तमें नहीं
हो जायगी। बहादुरी तो उसीमें है, जो पहले भी हमारे थे और अभी भी हमारे हैं, उन
भगवान्की प्राप्ति कर ली जाय। वे प्राप्त हो जायँ तो फिर मिटेंगे नहीं कभी।
बिछुड़ेंगे भी नहीं। वे सदैव हमारे हैं, हमारे साथ हैं, हमारे थे और रहेंगे। हम
सम्मुख हो जायेंगे तो निहाल हो जायँगे। विमुख रहेंगे तो दुःख पाते रहेंगे।
विमुख होनेपर भी भगवान् हमारे ही रहेंगे। पर हमारेको लाभ नहीं होगा। इस वास्ते
प्रभुको अपना बना लें। उनके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लें। यह बहुत दामी और
श्रेष्ठ बात है।
सत्संग सुननेका भी नतीजा यह होना चाहिये कि हम भगवान्के सम्मुख हो जायँ, उनको
अपना मान लें। संसारमें मोह बहुत दिन किया। जन्म-जन्मान्तरों में किया। परन्तु
हाथ कुछ नहीं लगा; रहे रोते-के-रोते ! भगवान्से अगर प्रेम करते तो निहाल हो
जाते। बिलकुल सच्ची बात है।
भगवान् सदैव साथमें रहते हैं। प्राण जानेपर भी उस समय भगवान् साथमें रहते हैं।
प्राण रहनेपर भी साथमें रहते हैं। सम्पत्तिमें भी साथमें रहते हैं। विपत्तिमें
भी साथमें रहते हैं। हर हालतमें वे साथ रहते हैं और साथ हैं। मनुष्य केवल उस
तरफ ध्यान नहीं देता। इधर दृष्टि नहीं डालता कि प्रभु मेरे हैं। इससे यह वञ्चित
हो रहा है, दुःखी हो रहा है। ऐसे प्रभुसे अपनापन करो। अपनापन करके उनके नामका
जप करो। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
‘मीराबाई इतनी बड़ी हो गयी इसमें कारण क्या है ?' 'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। इसमें विलक्षण बात है कि दूसरा मेरा नहीं है। मेरे तो भगवान् हैं। इसका भगवान्पर असर पड़ता है। अनन्य-भावसे उसने आश्रय ले लिया। भगवान्के हम हैं। और इसमें एक बात समझनेकी है कि प्रभुने किसीका त्याग नहीं किया है। यह जीव उनसे विमुख हुआ है। भगवान् विमुख नहीं हुए हैं। वे सदैव ही जीवके ऊपर कृपा करते रहते हैं। हम प्रभुको अपना मान लें। प्रभु मानते नहीं, प्रभु तो जानते हैं कि मेरा ही है और मानते भी हैं। आप हैं प्रभुके ही, पर गलती यह कर ली कि संसारको अपना मान लिया और अपनेको संसारका मान लिया। यह बड़ी भूल की है। इस गलतीका सुधार कर लें। भगवान् हमारे हैं और हम भगवान्के हैं।
देखो ! जो कपूत होता है, वह पूत नहीं होता है—ऐसा नहीं है। सपूत भी पूत है और कपूत-से-कपूत भी पूत है। एक कल्पना करो कि यहाँ से किसी का लड़का चला गया बम्बई, वहाँ जाकर बड़ी उद्दण्डता की, बहुत गलतियाँ कीं, लोगोंको दुःख दिया तो फँस गया कैदमें। कैदसे छूटकर घरपर आ गया तो बड़ी अपकीर्ति हुई। वहाँका कोई आदमी यहाँ आकर कहने लगे कि अमुक-अमुक नामका लड़का ऐसा-ऐसा कपूत निकला और संयोगवश उसका पिता वहाँ बैठा है तो लोग कहते हैं-'तुम जिसके लिये कहते हो, वह इनका बेटा है।' उनसे पूछा कि
आपका लड़का है क्या ? तो वह सिरपर हाथ रखकर कहता है-‘फूट गया, मेरा ही लड़का है !' वह चाहे कितना पश्चात्ताप करे, पर ‘लड़का मेरा नहीं' ऐसा नहीं, नहीं कह सकता। ऐसे ही भगवान् नहीं कह सकते कि मेरा नहीं है। चाहे नारकीय जीव है, बड़े दुर्गुण-दुराचार किये हैं, बड़ी यातना, दुःख, कष्ट भोग रहा है, परन्तु भगवान् यह नहीं कह सकते कि मेरा नहीं है।
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