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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम

भगवन्नाम

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 914
आईएसबीएन :81-293-0777-4

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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।

कारण क्या है? आपका सम्बन्ध पहलेसे भगवान्के साथ है और संसारके साथ आपका सम्बन्ध है नहीं। अभी भी बचपन, जवानी और वद्धावस्था-इनका आपके साथ निरन्तर सम्बन्ध कहाँ है ? ये निरन्तर बदलते हैं और निरन्तर रहते हैं तो इनका आपसे साथ नहीं है। बहुत-से लोग मर गये। बहुत-से मर रहे हैं। सभी जा रहे हैं। कोई भी अपने साथमें रहनेवाला नहीं है। पर प्रभु हरदम साथमें रहते हैं। प्रभु कभी हमसे वियुक्त हुए नहीं और हो नहीं सकते। यह जीव ही भगवान्से विमुख हुआ है। सभी जीव भगवान्को प्यारे हैं, सब भगवान्के पैदा किये हुए हैं। इस वास्ते भगवान् जीवको कभी भूलते नहीं हैं-‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए।'

संसारकी कोई भी वस्तु स्थिर नहीं रहती। जो आप रखते हो, नहीं रहता। अनुकूल परिस्थिति रखना चाहते हो, नहीं रहती। धन रखते हो, नहीं रहता। कुटुम्ब रखते हो, नहीं रहता। आप उनका भरोसा करते हो तो विश्वासघात होता है; क्योंकि वे साथ रह सकते ही नहीं। यह क्या है? यह भगवान्का निमन्त्रण है, भगवान्का आह्वान है, भगवान्की बुलाहट है। भगवान् आपको बुला रहे हैं कि तुम कहाँ फँस गये हो ? वे तुम्हारे नहीं हैं। तुम देख लो कि ये बेटा-पोता, पड़पोता, माँ, बाप, भाई, सम्बन्धी, मित्र, कुटुम्बी तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करते हैं? ये तुम्हारा साथ देनेवाले नहीं हैं-

संसार साथी सब स्वार्थके हैं,
पक्के विरोधी परमार्थ के हैं।
देगा न कोई दुःख में सहारा,
सुन तू किसी की मत बड़ा प्यारा॥

और बात तू मत सुन, एक नाम ही ले।

उपनिषदोंमें आता है-'श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः' बहुत-से आदमियोंको तो भगवत्सम्बन्धी बातें सुननेके लिये भी नहीं मिलतीं। उम्र बीत जाती है, पर सुननेके लिये नहीं मिलतीं। सज्जनो ! आपलोगोंको तो मौका मिल गया है। आपलोगोंपर भगवान्की कितनी कृपा है कि आप वाणी पढ़ते हैं, सन्तोंके प्रति श्रद्धा है, भावना है—यह कोई मामूली गुण नहीं है। आज आपको इसमें कुछ विशेषता नहीं दीखती, पर है यह बहुत विशेष बात, क्योंकि-

वैष्णवे भगवद्भक्तौ प्रसादे हरिनाम्नि च।
अल्पपुण्यवतां श्रद्धा यथावन्नैव जायते॥

भगवान्के प्यारे भक्त, भगवद्भक्ति आदिमें थोड़े पुण्यवालोंकी श्रद्धा नहीं होती। जब बहुत अन्तःकरण निर्मल होता है, तब सन्तोंमें, भगवान्की भक्तिमें, प्रसादमें और भगवान्के नाममें श्रद्धा होती है। जिनमें कुछ भी श्रद्धा-भक्ति होती है, यह उनके बड़े भारी पुण्यकी बात है। वे पवित्रात्मा हैं। नहीं तो, उनमें श्रद्धा नहीं बैठती। वह तर्क करेगा, कुतर्क करेगा। वह उनके पास ठहर नहीं सकता।

तुलसी पूरब पाप ते हरि चर्चा न सुहाय।
कै ऊँघे कै उठ चले कै दे बात चलाये॥

सत्संगमें जायगा तो नींद आ जायगी, दूसरी बात कहना शुरू कर देगा अथवा बैठकर चल देगा; परन्तु यदि वह कुछ दिन सत्संगमें ठहर जाय तो उसके भी सत्संग लग जायगा। वह भी भजन करने लग जायगा। फिर वह सत्संग छोड़ेगा नहीं।

एक बात मैंने सुनी है। एक आदमी यों ही हँसी-दिल्लगी उड़ानेवाला था। वह दिल्लगीमें ही कहता है कि ये देखो ये साधु ! ‘राम, राम, राम, राम, राम करते हैं तो दूसरे लोग कहते हैं—हाँ भाई ! कैसे करते हैं ? तो वह फिर कहता है-‘राम-राम-राम' ऐसे करते हैं। वह उठकर कहीं भी जाता तो लोग कहते हैं—हाँ बताओ, कैसे करते हैं? तो वह फिर कहता ‘राम-राम-राम' ऐसे करते हैं। ऐसे कहते-कहते महाराज, उसकी लौ लग गयी। वह नाम जपने लगा। इस वास्ते- ‘भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥' किसी तरहसे आप नाम ले तो लो। फिर देखो, इसकी विलक्षणता, अलौकिकता। परन्तु सज्जनो ! बिना लिये इसका पता नहीं लगता। जैसे मिठाई जबतक मुखसे बाहर रहे, तबतक उसके मिठासको नहीं जान सकते। मिठाई खानेवाला ही मिठाईके रसको जानता है।

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