गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवन्नाम भगवन्नामस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।
शास्त्रोंसे, सन्तोंसे नाम-महिमा सुन करके हम नाममें यत्किञ्चित् रुचि कर
सकते हैं। परन्तु उसका असली रस तब आयेगा, जब आप स्वयं लग जाओगे, और लग जाओगे
भीतरसे, हृदयसे; दिखावटीपनसे नहीं अर्थात् लोगोंको दिखानेके लिये नहीं। लोगोंको
दिखानेके लिये भजन करता है, वह तो लोगोंका भक्त है, भगवान्का नहीं। लोग मेरे को
भजनानन्दी समझें, इस वास्ते दिखाता है तो वह भगवान्का भक्त कहाँ ? भगवान्का
भक्त होगा तो वह भीतरसे कैसे नाम छोड़ सकेगा। एकान्तमें अथवा जन-समुदायमें, वह
नामको कैसे छोड़ सकता है ? असली लोभको वह कैसे छोड़ सकता है? आपके सामने पैसे आ
जायँ, रुपये आ जायँ अथवा आपके सामने पड़े हों तो छोड़ सकते हो क्या ? कैसे छोड़
सकते हैं? ले लोगे ! कूड़े-करकटमें पड़े हुएको भी चट उठा लोगे तो जो नामका
प्रेमी है, वह नाम छोड़ देगा, यह कैसे हो सकता है ? वह एक क्षणभर भी नामका
वियोग कैसे सह सकता है ?
नारदजी महाराजने भक्ति-सूत्रमें लिखा है-‘तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे
परमव्याकुलतेति।' अपना सब कुछ भगवान्के अर्पण तो कर देता है, पर भगवान्की, उनके
नामकी थोड़ी-सी भूल हो जाय तो वह व्याकुल हो जाता है। जैसे, मछलीको जलसे दूर
करनेपर वह छटपटाने लगती है और कुछ देर रखो, तो वह मर जाय, वह आरामसे नहीं रह
सकती। ऐसे ही ‘तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति' नामकी-भगवान्की विस्मृति होनेपर परम
व्याकुलता हो जायगी। उसको छोड़ नहीं सकते। भगवान्की स्मृतिका त्याग नहीं कर
सकते।
भागवतके एकादश स्कन्धमें नव योगेश्वरोंके प्रसंगमें आता है कि कोई भक्तसे कहे
कि आधे क्षणके लिये भी तू भगवान्की स्मृति छोड़ दे तो तेरेको त्रिलोकीका राज्य
दे देंगे तो वह कहता है-तेरे किसी वैभवके लिये भी आधे क्षणके लिये मैं भगवान्को
छोड़ नहीं सकता। उसके सामने वैभव कुछ नहीं है। यह है क्या चीज ? यह तो
क्षणभंगुर है और भगवान् हैं। निरन्तर रहनेवाले। इस वास्ते किसी लोभमें आकर भी
वह भगवान्के नामको कैसे छोड़ सकता है। अगर नाम छूट जाता है तो नामकी कीमत नहीं
समझी है। नामका महत्त्व उसके ध्यानमें नहीं आया। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्की
भूल होती नहीं। भूल कैसे हो ? ‘भूले नाय बने दयानिधि भूले नाय बने।' भूले बनता
नहीं। कैसे भूल जाय, भूल सकता नहीं।
जिसको यह रस लग गया तो लग ही गया। जैसे, मक्खी हर एक जगह बैठ जाती है और उड़
जाती है। मक्खी पहले तो अंगारपर बैठती ही नहीं और कभी बैठ जाय तो फिर उठती नहीं
कभी। फिर धुआँ ही उठेगा, वह नहीं उठेगी। ऐसे ही यह मन जबतक भगवान्में, भगवान्के
नाममें नहीं लगा है, तबतक यह जगह-जगह भटकता रहता है, परन्तु जब यह भगवान्में लग
जायगा तो फिर जय रामजीकी....! फिर तो बस, खतम ! फिर उठ नहीं सकता। जबतक मन उठता
है, तबतक मन नहीं लगा है, भजन नहीं हुआ है। लोग कहते हैं-‘हमने बहुत भजन किया,
नाम-जप किया।' बहुत किया क्या ? अभी नाम शुरू ही नहीं हुआ। असली भजन शुरू नहीं
हुआ है। शुरू होनेपर छूट जाय, यह आपके हाथकी बात नहीं। आप विचार करो, मरनेके
बाद हड्डियोंमें भगवान्का नाम आता है तो नाम कैसे छूट सकता है।
मारवाड़में एक फूली बाई जाटणी हुई है। वह भगवान्का नाम लेती थी। उसका काम था
थेपड़ी थापनेका। वह गोबरकी थेपड़ी थापती थी। किसीने उसकी थेपड़ी ले ली तो वह
उसके यहाँ गयी और कही–तूने मेरी थेपड़ी ले ली। उसने कहा-मैंने नहीं ली। अगर
मैंने ली है तो उसकी क्या पहचान है तेरे पास ? फूली बाईने कहा-थेपड़ी लगाओ
कानसे। उसने कानसे लगाया तो उसमें ‘राम-राम-राम' की ध्वनि निकल रही थी।
थेपड़ीमें नाम-जप हो रहा था। उसने आश्चर्यसे कहा-इसमें तो ‘राम-राम-राम' हो रहा
है। फूली बाईने कहा-यही तो है हमारी पहचान ! ऐसी थी फूली बाई ! तो जो सच्चे
हृदयसे नाम ले, उसकी कितनी महिमा है।
‘यह डोकरी (बुढ़िया) भगवान्की भक्ता है-ऐसा सुन करके एक बार जोधपुर दरबार वहाँ
चले गये, जहाँ फूली बाई रहती थी। वहाँ जाकर देखा तो अपने प्रत्येक फौजीके सामने
फूली बाई खड़ी है और फौजीको वही बाजरेका सोगरा, गॅवार फलियोंका साग भोजन करा
रही है। यह देखकर राजा बड़े खुश हुए और उसको बुलाकर रनिवासमें इस वास्ते भेजा
कि रानियोंको सत्संग नहीं मिलता। अतः यह बाई वहाँ चली जाये तो कुछ सत्संग हो
जाय। बेचारी फूली बाईका ऊँचा-ऊँचा तो वह घाघरिया, अपना वह ग्रामीण वेश था। वह
वैसे ही रनिवासमें चली गयी। उसको देखकर सब रानियाँ हँस पड़ीं कि क्या तमाशा आयी
है। तो फूली बाई अपनी सीधी-सादी भाषामें बोली-
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