नारी विमर्श >> कुछ दिन और कुछ दिन औरमंजूर एहतेशाम
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कुछ दिन और ...
कुछ दिन और निराशा के नहीं, आशा के भंवर में डूबते चले जाने की कहानी हैं - एक अंधी आशा, जिसके पास न कोई तर्क है, न कोई तंत्र; बस, वह है अपने-आप में स्वायत्त ! कहानी का नायक अपनी निष्क्रियता में जड़ हुआ, उसी की उँगली थामे चलता रहता है ! धीरे-धीरे जिंदगी के ऊपर से उसकी पकड़ छीजती चली जाती है ! और, इस पूरी प्रक्रिया को झेलती है उसकी पत्नी-कभी अपने मन पर और कभी अपने शरीर पर ! वह एक स्थगित जीवन जीने वाले व्यक्ति की पत्नी है ! इस तथ्य को धीरे-धीरे एक ठोस आकर देती हुई वह एक दिन पाती है कि इस लगातार विलंबित आशा से कहीं ज्यादा श्रेयस्कर एक ठोस निराशा है जहाँ से कम-से-कम कोई नई शुरुआत तो की जा सकती है ! और, वह यही निर्णय करती है ! कुछ दिन और अत्यंत सामान्य परिवेश में तलाश की गई एक विशिष्ट कहानी है, जिसे पढ़कर हम एकबरगी चौंक उठते हैं और देखते है कि हमारे आसपास बसे इन इतने शांत और सामान्य घरों में भी तो कोई कहानी नहीं पल रही !
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