सामाजिक >> भग्नाश भग्नाशगुरुदत्त
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भग्नाश...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
आशा उनकी भग्न होती है जो आशा बनाकर जीवन चलाया करते हैं। आशाहीन व्यक्ति कभी भग्नाश नहीं हो सकता।
आशा होती है अपने कार्य का फल पाने की। जहां अपना कोइ कार्य ही नहीं, वहां आशा का भी काम नहीं और इस कारण भग्नाश होने का भी अवसर नहीं। फल की आशा स्मरण-शक्ति का विषय है। जिसकी स्मरण-शक्ति अति हीन है और जो अपने एक दिन पूर्व किये प्रयास को भी स्मरण नहीं रख सकता, आशा जैसी मधुर वस्तु का स्वाद उसकी समझ में नहीं आ सकता। और फिर आशा टूटने का उसको दुःख भी नहीं होता।
परन्तु मानव ऐसा प्राणी नहीं है। उसके पास स्मरण-शक्ति के साथ-साथ विचार-शक्ति भी है। अपने प्रत्येक प्रयास पर वह मनन करता है और उसके फल की आशा करता है। इस आशा के बल पर ही वह कार्य की दुस्तरता को पार करता है और अनन्त कठिनाइयों को सहता हुआ भी अपने कर्तव्य में लीन रहता है।
परन्तु समाज का निर्माण हो जाने से मनुष्य के कुछ कर्तव्य उस तक ही सीमित न रहकर समाज के बन गये हैं। उनको करना, उसकी योजना बनाना और उनके फलाफल पर विचार करना समाज के कुछ विशिष्ट व्यक्तियों का काम रह जाता है। व्यक्ति उन विपयों पर विचार करने, उससे आशा करने और सफलता न मिलने पर भग्नाश होने के झमेले से मुक्त हो जाता है।
आरम्भ में तो समाज ने व्यक्ति के दो-तीन कार्य ही अपने हाथ में लिये थे। उदाहरण के रूप में अपराधी को दण्ड देकर समाज में सुव्यवस्था बनाये रखना, शत्रुओं से रक्षा करना और दैवी प्रकोपों के समय सार्वजनिक हितों की रक्षा करना।
समाज का कार्य-संचालन करनेवाले कुछ व्यक्ति विशेष ही होते हैं और उन पर ही कार्य का उत्तरदायित्व होता है। वे कार्य की योजना बनाते है। उस कार्य का संचालन करते हैं और फिर उसके फलाफल का निरीक्षण करते है। जन-साधारण न तो योजना बनानेवाले होते हैं और न ही उस योजना के संचालन-कर्त्ता। उनकी सफलता अथवा विफलता को देखने वाले तो और भी कम लोग होते हैं।
सामाजिक कार्यों के विषय में जन-साधारण प्रायः उदासीन रहते हैं। वे उन विषयों में जिनको समाज ने अपने हाथ में ले लिया होता है न तो कुछ जानते हैं और न ही जानने की उनकी कभी आवश्यकता पड़ती है। उनको वे करने भी नहीं पड़ते और फिर वे उन कार्यों के परिणामों में भी रुचि व्यक्त नहीं करते।
देश की सैनिक-शक्ति इसका स्पष्ट उदाहरण है। एक युग था जब सेना में प्रविष्ट होना और देश तथा जाति के लिए युद्ध करना कुछ एक जातियों का जन्मजात काम बन गया था। क्षत्रिय, राजपूत इत्यादि ही समाज के इस कार्य के उत्तरदायी बना दिये गये थे। परिणाम यह हुआ कि एक समय ऐसा आया जब देश की रक्षा और अपने धन-सम्पत्ति की रक्षा में भी जन-साधारण की रुचि नहीं रही। यदि सैनिक-वर्ग ने युद्ध करके देश की रक्षा कर दी तो हो गई, अन्यथा यदि प्रमादवश या अयोग्यता के कारण सैनिक-वर्ग देश की स्वतन्त्रता को स्थिर रखने में असफल रहा तो गूंगी अपाहिज प्रजा ने परिवर्तित परिस्थिति को स्वीकार कर लिया। राज्य बदले, राजा बदले। लूट-पाट हुई अथवा बलात्कार और अपहरण हुए और जनता पशुओं की भांति एक स्थान से दूसरे स्थान को हांकी जाती रही।
यह है समाज द्वारा किसी कार्य को अपने अधीन कर उसका जनसाधारण से सम्बन्ध-विच्छेद करने का परिणाम।
सुरक्षा, सुव्यवस्था और दैवी प्रकोपों से बचाने के उपायों, प्रयासों और उनकी सफलता अथवा असफलता से जन-साधारण को असम्बद्ध रखने का परिणाम है जन-साधारण को इन विषयों में, मनुष्य को गिराकर पशु की पदवी पर पहुंचा देना। यह मानवता का विरोधी कार्य है। राजा अथवा राज्य को इन कार्यों में पूर्ण जनता को उत्तरदायी बनाने के लिए उसको इन कामों में सहयोगी और सहचारी बनाना आवश्यक है। मानव में मनुष्यता स्थिर रखना कृत्रिम सुख-साधन से अधिक आवश्यक है।
सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप में भौतिकवाद का प्रभाव बढ़ा और मनुष्य केवल पंचभूतों का पुंजमात्र माना जाने लगा। मन और आत्मा के अस्तित्व से इन्कार होते ही सुख-साधनों का क्षेत्र बदला और शारीरिक सुखों की उपलब्धि के अर्थ मन और आत्मा का बलिदान होने लगा। इससे वर्तमान युग के समाजवाद का शिलान्यास हुआ। समाज किसी देश में व्यवस्था स्थापित करने, शत्रु से रक्षा करने तथा दैवी प्रकोप होने पर जन-साधारण की रक्षा करने के स्थान पर मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि पर अपना नियन्त्रण रखनेवाला बन बैठा।
समाज का एक छोटा-सा वर्ग राजा, राष्ट्रपति अथवा फीताशाही कर्मचारी, व्यक्ति के पूर्ण कर्मों पर न केवल देख-रेख ही प्रत्यत उनकी योजना बनानेवाला, उनके संचालन करनेवाला और उनके फलाफल का देखनेवाला बन गया है। शेष जनता केवल भोक्ता रह गई है।
भोग-योनि मानव-योनि नहीं प्रस्तुत पशु-योनि है। पशु के लिए पेटपूर्ति, कामतृप्ति और सोने के अतिरिक्त कुछ भी करणीय नहीं। समाजवादी समाज में यही जन-साधारण का कार्य रह जाता है। पशुओं की भांति, ऐसे समाज में व्यक्ति का अपने नेताओं के आदेश-पालन के अतिरिक्त अन्य कुछ करणीय नहीं रह जाता।
भारत में ऐसे समाज की स्थापना का आयोजन हो रहा है। समाजवादी समाज में स्वेच्छा से मिलकर कार्य करने की भावना (Willing Co-Operative mentality) का अभाव हो जाता है और उसके स्थान पर बलपूर्वक अधीनता (Forced Submission) उत्पन्न हो जाती है। मनुष्य को पालतू पशु की भांति आचरण रखने पर विवश किया जाता है।
मनुष्य और पशु में अन्तर कृत्रिम नहीं होता। यह अन्तर जन्मजात है। सिखाने पर भी एक पशु मनुष्य की भांति स्वेच्छाचारी नहीं बन सकता। कुछ एक बातों में, वह भी कुछ पशुओं को, सिखा-सिखाकर मनुष्य की भांति काम करने पर लगाया जा सकता है। परन्तु यह सबके साथ और सब कामों में नहीं हो सकता।
इसी प्रकार मनुष्य को कुछ काल के लिए कुछ एक बातों में आदेश पर चलाया जा सकता है, परन्तु सब मनुष्यों को सदा के लिए सब कामों में पशुवत् काम पर लगाया नहीं जा सकता। अतः मनुष्य इस ढांचे से बगावत करेगा। इस बगावत में कभी असफल होना भी हो सकता है।
इस असफलता की ही ‘भग्नाश’ एक कहानी है।
यदि मानव पशु नहीं, यदि मनुष्य-योनि, पशु-योनि अर्थात् भोग-योनि नहीं बल्कि कर्म-योनि भी है, तो यह विद्रोह तब तक जारी रहेगा जब तक मनुष्य को पशु बनाने की योजनाएं चलती रहेंगी। समय-समय पर मनुष्य विद्रोह करते रहेंगे और समाजवादी ढांचे को तोड़फोड़ बेकार करते रहेंगे।
दुर्भाग्य है कि मानव को पशु बनाने का प्रयास भारत जैसे ज्ञान-प्रधान देश में चल रहा है। इस मानवविहीन पशु निर्माण करने के कार्य को बहुत तेजी से किया जा रहा है। इस निर्माण-कार्य में लीन व्यक्तियों का यह मत है कि मनुष्य को इसके भयंकर परिणामों से अवगत हो इसके विरुद्ध खड़े होने से पूर्व ही यह ढांचा पूरा हो जाना चाहिए। परन्तु क्या यह सम्भव है ? यह बात सन्देहात्मक है। मानव को कुछ काल के लिए मूर्ख बनाया जा सकता है परन्तु सदा के लिए नहीं।
यह विषय है ‘भग्नाश’ उपन्यास का। यह उपन्यास होने से स्थान, व्यक्ति और घटनाओं में कल्पना का क्षेत्र है। यदि कुछ वास्तविक है, तो वह है उपन्यास की विचारधारा और भावना।
आशा होती है अपने कार्य का फल पाने की। जहां अपना कोइ कार्य ही नहीं, वहां आशा का भी काम नहीं और इस कारण भग्नाश होने का भी अवसर नहीं। फल की आशा स्मरण-शक्ति का विषय है। जिसकी स्मरण-शक्ति अति हीन है और जो अपने एक दिन पूर्व किये प्रयास को भी स्मरण नहीं रख सकता, आशा जैसी मधुर वस्तु का स्वाद उसकी समझ में नहीं आ सकता। और फिर आशा टूटने का उसको दुःख भी नहीं होता।
परन्तु मानव ऐसा प्राणी नहीं है। उसके पास स्मरण-शक्ति के साथ-साथ विचार-शक्ति भी है। अपने प्रत्येक प्रयास पर वह मनन करता है और उसके फल की आशा करता है। इस आशा के बल पर ही वह कार्य की दुस्तरता को पार करता है और अनन्त कठिनाइयों को सहता हुआ भी अपने कर्तव्य में लीन रहता है।
परन्तु समाज का निर्माण हो जाने से मनुष्य के कुछ कर्तव्य उस तक ही सीमित न रहकर समाज के बन गये हैं। उनको करना, उसकी योजना बनाना और उनके फलाफल पर विचार करना समाज के कुछ विशिष्ट व्यक्तियों का काम रह जाता है। व्यक्ति उन विपयों पर विचार करने, उससे आशा करने और सफलता न मिलने पर भग्नाश होने के झमेले से मुक्त हो जाता है।
आरम्भ में तो समाज ने व्यक्ति के दो-तीन कार्य ही अपने हाथ में लिये थे। उदाहरण के रूप में अपराधी को दण्ड देकर समाज में सुव्यवस्था बनाये रखना, शत्रुओं से रक्षा करना और दैवी प्रकोपों के समय सार्वजनिक हितों की रक्षा करना।
समाज का कार्य-संचालन करनेवाले कुछ व्यक्ति विशेष ही होते हैं और उन पर ही कार्य का उत्तरदायित्व होता है। वे कार्य की योजना बनाते है। उस कार्य का संचालन करते हैं और फिर उसके फलाफल का निरीक्षण करते है। जन-साधारण न तो योजना बनानेवाले होते हैं और न ही उस योजना के संचालन-कर्त्ता। उनकी सफलता अथवा विफलता को देखने वाले तो और भी कम लोग होते हैं।
सामाजिक कार्यों के विषय में जन-साधारण प्रायः उदासीन रहते हैं। वे उन विषयों में जिनको समाज ने अपने हाथ में ले लिया होता है न तो कुछ जानते हैं और न ही जानने की उनकी कभी आवश्यकता पड़ती है। उनको वे करने भी नहीं पड़ते और फिर वे उन कार्यों के परिणामों में भी रुचि व्यक्त नहीं करते।
देश की सैनिक-शक्ति इसका स्पष्ट उदाहरण है। एक युग था जब सेना में प्रविष्ट होना और देश तथा जाति के लिए युद्ध करना कुछ एक जातियों का जन्मजात काम बन गया था। क्षत्रिय, राजपूत इत्यादि ही समाज के इस कार्य के उत्तरदायी बना दिये गये थे। परिणाम यह हुआ कि एक समय ऐसा आया जब देश की रक्षा और अपने धन-सम्पत्ति की रक्षा में भी जन-साधारण की रुचि नहीं रही। यदि सैनिक-वर्ग ने युद्ध करके देश की रक्षा कर दी तो हो गई, अन्यथा यदि प्रमादवश या अयोग्यता के कारण सैनिक-वर्ग देश की स्वतन्त्रता को स्थिर रखने में असफल रहा तो गूंगी अपाहिज प्रजा ने परिवर्तित परिस्थिति को स्वीकार कर लिया। राज्य बदले, राजा बदले। लूट-पाट हुई अथवा बलात्कार और अपहरण हुए और जनता पशुओं की भांति एक स्थान से दूसरे स्थान को हांकी जाती रही।
यह है समाज द्वारा किसी कार्य को अपने अधीन कर उसका जनसाधारण से सम्बन्ध-विच्छेद करने का परिणाम।
सुरक्षा, सुव्यवस्था और दैवी प्रकोपों से बचाने के उपायों, प्रयासों और उनकी सफलता अथवा असफलता से जन-साधारण को असम्बद्ध रखने का परिणाम है जन-साधारण को इन विषयों में, मनुष्य को गिराकर पशु की पदवी पर पहुंचा देना। यह मानवता का विरोधी कार्य है। राजा अथवा राज्य को इन कार्यों में पूर्ण जनता को उत्तरदायी बनाने के लिए उसको इन कामों में सहयोगी और सहचारी बनाना आवश्यक है। मानव में मनुष्यता स्थिर रखना कृत्रिम सुख-साधन से अधिक आवश्यक है।
सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप में भौतिकवाद का प्रभाव बढ़ा और मनुष्य केवल पंचभूतों का पुंजमात्र माना जाने लगा। मन और आत्मा के अस्तित्व से इन्कार होते ही सुख-साधनों का क्षेत्र बदला और शारीरिक सुखों की उपलब्धि के अर्थ मन और आत्मा का बलिदान होने लगा। इससे वर्तमान युग के समाजवाद का शिलान्यास हुआ। समाज किसी देश में व्यवस्था स्थापित करने, शत्रु से रक्षा करने तथा दैवी प्रकोप होने पर जन-साधारण की रक्षा करने के स्थान पर मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि पर अपना नियन्त्रण रखनेवाला बन बैठा।
समाज का एक छोटा-सा वर्ग राजा, राष्ट्रपति अथवा फीताशाही कर्मचारी, व्यक्ति के पूर्ण कर्मों पर न केवल देख-रेख ही प्रत्यत उनकी योजना बनानेवाला, उनके संचालन करनेवाला और उनके फलाफल का देखनेवाला बन गया है। शेष जनता केवल भोक्ता रह गई है।
भोग-योनि मानव-योनि नहीं प्रस्तुत पशु-योनि है। पशु के लिए पेटपूर्ति, कामतृप्ति और सोने के अतिरिक्त कुछ भी करणीय नहीं। समाजवादी समाज में यही जन-साधारण का कार्य रह जाता है। पशुओं की भांति, ऐसे समाज में व्यक्ति का अपने नेताओं के आदेश-पालन के अतिरिक्त अन्य कुछ करणीय नहीं रह जाता।
भारत में ऐसे समाज की स्थापना का आयोजन हो रहा है। समाजवादी समाज में स्वेच्छा से मिलकर कार्य करने की भावना (Willing Co-Operative mentality) का अभाव हो जाता है और उसके स्थान पर बलपूर्वक अधीनता (Forced Submission) उत्पन्न हो जाती है। मनुष्य को पालतू पशु की भांति आचरण रखने पर विवश किया जाता है।
मनुष्य और पशु में अन्तर कृत्रिम नहीं होता। यह अन्तर जन्मजात है। सिखाने पर भी एक पशु मनुष्य की भांति स्वेच्छाचारी नहीं बन सकता। कुछ एक बातों में, वह भी कुछ पशुओं को, सिखा-सिखाकर मनुष्य की भांति काम करने पर लगाया जा सकता है। परन्तु यह सबके साथ और सब कामों में नहीं हो सकता।
इसी प्रकार मनुष्य को कुछ काल के लिए कुछ एक बातों में आदेश पर चलाया जा सकता है, परन्तु सब मनुष्यों को सदा के लिए सब कामों में पशुवत् काम पर लगाया नहीं जा सकता। अतः मनुष्य इस ढांचे से बगावत करेगा। इस बगावत में कभी असफल होना भी हो सकता है।
इस असफलता की ही ‘भग्नाश’ एक कहानी है।
यदि मानव पशु नहीं, यदि मनुष्य-योनि, पशु-योनि अर्थात् भोग-योनि नहीं बल्कि कर्म-योनि भी है, तो यह विद्रोह तब तक जारी रहेगा जब तक मनुष्य को पशु बनाने की योजनाएं चलती रहेंगी। समय-समय पर मनुष्य विद्रोह करते रहेंगे और समाजवादी ढांचे को तोड़फोड़ बेकार करते रहेंगे।
दुर्भाग्य है कि मानव को पशु बनाने का प्रयास भारत जैसे ज्ञान-प्रधान देश में चल रहा है। इस मानवविहीन पशु निर्माण करने के कार्य को बहुत तेजी से किया जा रहा है। इस निर्माण-कार्य में लीन व्यक्तियों का यह मत है कि मनुष्य को इसके भयंकर परिणामों से अवगत हो इसके विरुद्ध खड़े होने से पूर्व ही यह ढांचा पूरा हो जाना चाहिए। परन्तु क्या यह सम्भव है ? यह बात सन्देहात्मक है। मानव को कुछ काल के लिए मूर्ख बनाया जा सकता है परन्तु सदा के लिए नहीं।
यह विषय है ‘भग्नाश’ उपन्यास का। यह उपन्यास होने से स्थान, व्यक्ति और घटनाओं में कल्पना का क्षेत्र है। यदि कुछ वास्तविक है, तो वह है उपन्यास की विचारधारा और भावना।
- गुरुदत्त
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