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ममता
ममता
प्रकाशक :
लोकभारती प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2015 |
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ :
पेपरबैक
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पुस्तक क्रमांक : 9284
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आईएसबीएन :9788189417062 |
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रोहतास-दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिए, वह सुख के कंटक-शयन में विकल थी। वह रोहतास-दुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह विधवा थी-हिन्दू विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है-तब उसकी विडंबना का कहाँ अंत था ?
चूड़ामणि ने चुपचाप उसके प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। शोण के प्रवाह में, उसके कल-नाद में, अपना जीवन मिलाने में वह बेसुध थी। पिता का आना न जान सकी। चूड़ामणि व्यथित हो उठे। स्नेह-पालिता पुत्री के लिए क्या करें, यह स्थिर न कर सकते थे। लौटकर बाहर चले गए। ऐसा प्रायः होता, पर आज मंत्री के मन में बड़ी दुश्चिंता थी। पैर सीधे न पड़ते थे।
एक पहर बीत जाने पर वे फिर ममता के पास आए। उस समय उनके पीछे दस सेवक चाँदी के बड़े थालों में कुछ लिए हुए खड़े थे; कितने ही मनुष्यों के पद-शब्द सुन ममता ने घूमकर देखा। मंत्री ने सब थालों को रखने का संकेत किया। अनुचर थाल रखकर चले गए।
ममता ने पूछा - ‘‘यह क्या है, पिताजी ?’’
‘‘तेरे लिए बेटी ! उपहार है।’’ - कहकर चूड़ामणि ने उसका आवरण उलट दिया। स्वर्ण का पीलापन उस सुनहली संध्या में विकीर्ण होने लगा। ममता चौंक उठी -
‘‘इतना स्वर्ण ! यह कहाँ से आया ?’’
‘‘चुप रहो ममता, यह तुम्हारे लिए है !’’
‘‘तो क्या आपने म्लेच्छ का उत्कोच स्वीकार कर लिया ? पिताजी यह अनर्थ है, अर्थ नहीं। लौटा दीजिए। पिताजी ! हम लोग ब्राह्मण हैं, इतना सोना लेकर क्या करेंगे ?’’
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