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मृगतृष्णा

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9331
आईएसबीएन :000

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रथम परिच्छेद

तराई क्षेत्र में हल्द्वानी के उत्तर की ओर हथियापुर नाम के एक गाँव में एक युवक अखाड़े में व्यायाम और कुश्ती कर स्नान के लिए नदी की ओर जा रहा था। व्यायाम तथा कुश्ती करने से गरम हुए बदन को ठण्डा करने के लिए उसने वस्त्र पहने नहीं थे और उन्हें बगल में दबा गाँव के बाहर बहती नदी की ओर चल पड़ा था। उसने लंगोट कसा हुआ था और शेष शरीर से नंगा था।

गाँव में से निकल रहा था कि एक दुकानदार ने अपनी दुकान पर बैठे-बैठे उसको जाते देखा। दुकान पर ही खड़े गाँव के एक अन्य व्यक्ति से उसने कहा -‘‘पण्डित का लड़का तो खूब तैयार हो रहा है।’’

‘‘हाँ।’’ दूसरे ने कह दिया, ‘‘भाई, अब पण्डित जी को किस बात की कमी है ? रानी साहिबा दयालु हो रही हैं। घर में लहर-बहर लग रही है।’’

दुकानदार ने कहा ‘‘मुख पर से ओज टपक रहा है।’’

‘‘यह भी बाप की तरह गाँव की किसी लड़की पर हाथ साफ करेगा।’’

दुकानदार को समझ आया कि सामने खड़ा व्यक्ति निन्दात्मक भाव में बात कर रहा है। उसने सतर्क होकर कहा, ‘‘तुम्हारे घर में कोई युवा लड़की हो तो उसे बचाकर रखना। अरे, साधु के बच्चे ! क्या खराबी देखी है तुमने इस लड़के में ?’’

साधु जात का जुलाहा था। किसी समय वह गाँव के ज़मींदार सुन्दरसिंह की भूमि पर मेहनत-मजदूरी करता था।

जब ज़मींदारियाँ जब्त होने लगीं तो बाबू सुन्दरसिंह के पुरोहित करुणानिधि उपाध्याय ने बाबू साहब को राय दे दी कि ज़मींदारी तो रहेगी नहीं, यह ठीक होगा कि आप सरकार द्वारा छिन जाने से पहले ही इसे बेच दें।

बाबू सुन्दरसिंह ने पूछा, ‘‘पण्डितजी ! जब अंग्रेज़ का राज्य था, तब तो छीनी नहीं गई; अब स्वराज्य होने पर यह क्यों छिन जाएगी ?’’

‘‘बाबू साहब ! यह छिनेगी। आप विश्वास रखें कि अब यह रह नहीं सकती। सरकार लेगी तो मनमाने दाम देगी और आप बेचेंगे तो स्वेच्छा से उचित दाम पर बेचेंगे। यदि कुछ रियायत से देंगे तो लोग आपके गुण गाएँगे और इससे आपका परलोक सुधरेगा।’’

‘‘क्या दाम होना चाहिए ?’’

‘‘मेरा विचार है कि आप बीस रुपये बीघा से लेकर दस रुपये बीघा पर बेच दें। इतनी सस्ती भूमि कहीं नहीं मिल सकती। यह लगभग दो-तीन पैसा प्रति मुरब्बा गज पर होगी और लोग प्रसन्न होंगे। आप भी यश और कीर्ति के भागी बनेंगे।’’

सुन्दरसिंह को बात जँच गई। यह सन् 1948 की बात थी। गाँव की भूमि उपजाऊ थी। अतः ज्यों ही यह बात फैली कि बाबू साहब जमींदारी बेच रहे हैं, छोटे-बड़े, धनी-निर्धन सब यत्न करने लगे कि भूमि ले लें। जो भूमि पट्टे पर पहले ही दी हुई थी, उस पर बाबू साहब ने निःशुल्क बयनामा लिख देने का प्रलोभन दिया और दाम भी कम कर दिया।

बहुत-सी भूमि परती पड़ी थी। वह नदी से कुछ ऊँचाई पर थी; पानी वहाँ जा नहीं सकता था। करुणानिधि ने सम्मति दे दी कि वहाँ एक फार्म बना लिया जाए और ट्यूबवेल लगाकर सिंचाई का प्रबन्ध कर दिया जाए।

ज़मींदारी में लगभग पचास हज़ार बीघा भूमि थी। दो फार्म एक-एक हज़ार एकड़ के परती भूमि पर बना लिये गए और शेष भूमि बेच डाली। प्रायः भूमि उन्हीं को दी गई जो वहाँ पहले से ही काश्त करते थे। कुछ काश्तकार बहुत निर्धन थे। उनको करुणानिधि ने धन ऋण पर दिलवाने का प्रबन्ध कर दिया। गाँव के एक बनिये ने ऋण में पचास हज़ार रुपया लगा दिया। बाहर के लोगों ने भी ऋण पर रुपया लगाया था।

सन् 1949 के अन्त तक तीन लाख रुपया बाबू साहब के पास एकत्रित हो गया और उसमें से एक लाख रुपया दो फार्मों पर पम्प इत्यादि लगाने में तथा ट्रैक्टर का प्रबन्ध करने में लग गया। इसमें से एक फार्म बाबू साहब की बड़ी पत्नी के नाम था और दूसरा बाबू साहब ने अपने नाम पर रहने दिया।

सन् 1953 में प्रत्येक फार्म चालीस से पचास हज़ार की आय देने लगा था। इसी समय बाबू साहब एकाएक बीमार हो गए। चिकित्सा होने लगी; परन्तु रोग का निदान ही नहीं हो सका और एक दिन उनको समझ आ गया कि वे अब बच नहीं सकते। उन्होंने अपनी छोटी पत्नी और अल्पवयस्क लड़के के संरक्षण का विचार किया तो उन्हें पण्डित करुणानिधि से अधिक उपयुक्त व्यक्ति कोई नहीं दिखाई दिया।

उन्होंने अपनी वृद्ध माता और दोनों पत्नियों को बुला लिया और कहा, ‘‘देखो, मैं जा रहा हूँ; और मैं चाहता हूँ कि घर की व्यवस्था कर जाऊँ।

‘‘मेरा कोई भाई-बन्धु ऐसा नहीं, जिसको मैं दो-दो फार्म और युवा पत्नी तथा छः वर्ष के लड़के का हाथ पकड़ा सकूँ। मुझे अपना सबसे निकट सम्बन्धी, जिसपर मैं भरोसा कर सकता हूँ पण्डित सरस्वतीनाथ का लड़का करुणानिधि समझ आ रहा है। बताओ, मैं उसे बुलाकर कहूँ कि वह यह उत्तरदायित्व सम्भाले।’’

सुन्दरसिंह की बड़ी पत्नी करुणा ने कह दिया, ‘‘वह मानेगा नहीं। आपके जीवनकाल में तो वह सांसारिक झगड़ों से बाहर रहा है। भला आपके मरने पर वह काम क्यों करेगा ?’’

बाबू साहब बोले, ‘‘एक बात तो मैं जानता हूँ कि यदि वह मान गया तो फिर प्रबन्ध रुचि और कुशलतापूर्वक करेगा। मेरे काल में भी जो कुछ उसने मेरे लिए किया है मैं भूल नहीं सकता। दूसरे ज़मींदारों की जो अवस्था है, उससे हमारी अवस्था बहुत अच्छी है और जहाँ उन ज़मींदारों की प्रजा जमीदारों की शत्रु बन रही है, वहाँ मेरी ज़मींदारी के लोग मेरे परिवार का आदर और मान करते हैं।’’

करुणा ने कह दिया, ‘‘बुलाकर पूछिए।’’

करुणानिधि को बुलाया गया। वह मान नहीं रहा था, परन्तु बाबू साहब ने पण्डित जी के चरण छू दिए तो वह इन्कार नहीं कर सका। करुणानिधि फार्मों का प्रबन्धक हो गया। उसके साथ ही बाबू साहब के परिवार का संरक्षक हो गया।

इस प्रबन्ध का एक परिणाम यह हुआ कि बाबू साहब का इकलौता बेटा रघुवीरसिंह पण्डित जी का शिष्य बन गया। पण्डित जी उसे अपने लड़के सुमित्रानन्दन के साथ पढ़ाने लगे।

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