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गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 939
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....

विषणुप्रिया तुलसी
पद्य, शिव, स्कन्द एवं श्रीमद्देवीभागवत आदि पुराणोंके अनुसार तुलसीका जन्म दक्षसावर्णि मनुके वंशज धर्मध्वजके यहाँ शुभ दिन, योग, करण, लग्न और ग्रहमें कार्तिक पूर्णिमाको हुआ था। वह अपूर्व सुन्दरी थी। अल्पावस्थामें ही तुलसी बदरीवनमें जाकर भगवान् नारायणको पतिरूपमें प्राप्त करने के लिये तपस्या करने लगी। दीर्घकालीन तपस्याके उपरान्त ब्रह्माजीने उसे दर्शन दिया तथा मनोऽभिलषित वर माँगनेके कहा। तुलसीने निवेदन किया कि 'पितामह! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं तथापि मैं अपने मनकी अभिलाषा आपसे कहती हूँ। पूर्वजन्ममें मैं गोपी थी, मुझे भगवान् श्रीकृष्णकी अनुचरी होनेका सौभाग्य प्राप्त था, किंतु एक दिन भगवती राधाने रासमण्डलमें कुद्ध हो मुझे मानव-योनिमे उत्पन्न होनेका शाप दे दिया, उसी कारणसे अब मैं इस भूमण्डलपर उत्पन्न हुई हूँ। सुन्दर विग्रहवाले भगवान् नारायण उस समय मेरे पति थे, उन्हींको मैं अब भी पतिरूपमें प्राप्त करना चाहती हूँ।'

ब्रह्माजीने बताया कि 'सुदामा नामक गोप जो नारायणका पार्षद था, श्रीराधिकाजीके शापसे भूमण्डलमें उत्पन्न हुआ है और वह इस समय शंखचूड़ नामसे प्रसिद्ध है। वह भगवान् श्रीकृष्णका ही अंश है, जो तुम्हारा प्रथम पति होगा। तत्पश्चात् भगवान् नारायण तुम्हें पत्नीरूपमें अंगीकार करेंगे।'

दनुकुलमें उत्पन्न शंखचूड़ महान् योगी था। एक बार वह बदरीवनमें आया। उसे जैगीषव्य मुनिकी कृपासे भगवान् श्रीकृष्णका मनोहर मन्त्र प्राप्त था। ब्रह्माजीने भी उसे अभिलषित वर देकर यहाँ आनेकी आज्ञा दी थी। संयोगवश तुलसीकी दृष्टि उसपर पड़ गयी। दोनों परस्पर वार्तालापमें संलग्न हुए ही थे कि ब्रह्माजीने प्रकट होकर दोनोंको दाम्पत्यसूत्रमें बँधनेका आदेश दिया। शंखचूड़ तुलसीसे गान्धर्वविवाह कर उसे अपने भवनमें ले गया तथा आनन्दपूर्वक रहने लगा।

अपनी धर्मपत्नी परम सुन्दरी तुलसीके साथ शंखचूड़ने दीर्घकालतक राज्य किया। उसका शासन देवता, दानवादि सभी मानते थे, किंतु देवतागण अपना अधिकार छिन जानेसे भिक्षुककी-सी स्थितिमें थे। वे ब्रह्मा तथा शंकरको आगेकर श्रीहरिके पावन धाम वैकुण्ठ गये तथा उनकी स्तुति कर, विनयशील होकर भगवान् श्रीहरिसे सारी परिस्थिति बतायी। सर्वज्ञ भगवान् श्रीहरिने देवताओंको शंखचूड़के जन्मका अद्धृत रहस्य बताया और कहा कि महान् तेजस्वी शंखचूड़ पूर्वजन्ममें मेरा ही अंश एक गोप था, जिसे राधिकाजीके शापके कारण यह योनि मिली है, परंतु अपने समयपर शंखचूड़ पुनः गोलोक चला जायगा।

उन्होंने भगवान् शंकरको शंखचूड़का संहार करनेके लिये एक त्रिशूल प्रदान किया और कहा कि 'शंखचूड़ मेरा मंगलमय कवच सदा धारण किये रहता है, जिससे कोई उसे मार नहीं सकता, अतः मैं स्वयं ही ब्राह्मणवेशमें उससे कवचके लिये याचना करूँगा। तब आपके द्वारा इस त्रिशूलके प्रहारसे उसी समय उसकी मृत्यु हो जायगी और तुलसी भी यह शरीर त्यागकर पुनः मेरी पत्नी बन जायगी।'

तदनन्तर देवताओंका अभ्युदय करनेके विचारसे भगवान् महादेवने चन्द्रभागातटपर एक मनोहर वट-वृक्षके नीचे अपना आसन जमाया और गन्धर्वराज चित्ररथको अपना दूत बनाकर शंखचूड़के पास यह संदेश भेजा कि 'या तो दानवराज देवताओंका राज्य और उनके अधिकारको लौटा दें अथवा युद्ध करनेके लिये प्रस्तुत हों।'

यह संदेश सुनकर शंखचूड़ने दूतसे हँसते हुए कहा-'तुम जाओ, मैं कल प्रातःकाल भगवान् शंकरके पास स्वयं आऊँगा।' इधर भगवान् शंकरकी प्रेरणासे उनके पुत्र कार्तिकेय और भद्रकाली आदि देवियाँ अस्त्र-शस्त्र लिये रणांगणमें पहुँच गयीं। उधर दूतके चले जानेपर शंखचूड़ने अन्तःपुरमें जाकर तुलसीसे युद्ध-सम्बन्धी बातें बतायीं, जिन्हें सुनते ही उसके होठ और तालू सूख गये। शंखचूड़ने उसे समझाया और कहा कि 'कर्मभोगका सारा निबन्ध कालसूत्रमें बँधा है, शुभ, हर्ष, सुख-दुःख, भय, शोक और मंगल सभी कालके अधीन हैं। तुम उन्हीं भगवान् श्रीहरिकी शरणमें जाओ, अब तुम्हें वे पतिरूपमें प्राप्त होंगे, जिन्हें पानेके लिये बदरी-आश्रममें तुमने तपस्या की है। मैं भी इस दानव-शरीरका परित्याग कर उसी दिव्यलोकमें चलूँगा। अतः शोक करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है।'

तुलसी कुछ आश्वस्त हुई और शंखचूड़ने ब्राह्ममुहूर्तमें शय्याको त्यागकर तथा नित्यकर्मको सम्पादित किया। तदनन्तर उसने एक महारथीको सेनापति-पदपर नियुक्त किया, फिर वह मन-ही-मन भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए उत्तम रत्नोंसे बने विमानपर सवार होकर चला। पुष्पभद्रा-नदीके तटपर सुन्दर अक्षयवटके नीचे उसने भगवान् शंकरको देखा। वे योगासन-मुद्रा लगाकर हाथमें त्रिशूल और पट्टिश धारण किये बैठे थे। दानवराज उन्हें देखकर विमानसे उतर पड़ा तथा सबके साथ भगवान् शंकरको उसने सिर झुकाकर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। शंकरजीके वामभागमें भद्रकाली विराजित थीं और सामने स्वामी कार्तिकेय थे। तीनोंने शंखचूड़को आशीर्वाद दिया।

फिर शंखचूड़ने भगवान् शंकरसे कहा कि 'आपको देवताओंका पक्ष लेना उचित नहीं है, आपके लिये हम दोनों समान हैं। हमारा-आपका युद्ध भी आपके लिये लज्जाकी बात होगी। हम विजयी होंगे तो हमारी कीर्ति अधिक फैल जायगी और पराजित होनेपर हमारी कीर्तिमें बहुत थोड़ा ही धब्बा लगेगा।'

शंखचूड़की बात सुनकर भगवान् त्रिलोचन हँसने लगे और उससे बोले कि 'या तो तुम देवताओंका राज्य लौटा दो अथवा मेरे साथ लड़नेको तैयार हो जाओ। इसमें लज्जाकी कोई बात नहीं है।' इसपर शंखचूड़ने भगवान् शंकरको प्रणाम किया और अपनी सेनाको युद्धके लिये आज्ञा दे दी। युद्ध प्रारम्भ हो गया। युद्धमें दानवोंने शंकरदलके बहुत-से वीरोंको परास्त कर दिया। देवता डरकर भाग चले। उसी समय स्वामिकार्तिकेयने गणोंको ललकारा और वे स्वयं भी दानवोंके साथ लड़ने लगे। दानव-सेना घबरा गयी। तभी शंखचूड़ने विमानपर चढ़कर भीषण बाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी। फिर तो बड़ा भीषण युद्ध हुआ। दानवराजने मायाका आश्रय लेकर बाणोंका जाल फैला दिया। इससे स्वामिकार्तिकेय ढक-से गये। अन्तमें भगवान् शंकर स्वयं कथाएँ अपने गणोंके साथ संग्राममें पहुँचे, उन्हें देखकर शंखचूड़ने विमानसे उतरकर परम भक्तिके साथ पृथ्वीपर मस्तक टेककर दण्डवत् प्रणाम किया। तदुपरान्त वह तुरंत रथपर सवार हो गया और भगवान् शंकरसे युद्ध करने लगा। लम्बी अवधितक दोनोंका युद्ध चला, पर कोई किसीसे न जीतता था न हारता था। तभी भगवान् श्रीहरि एक अत्यन्त आतुर बूढ़े ब्राह्मणका वेश धारणकर युद्धभूमिमें आये। उन्होंने शंखचूड़से उसके 'कृष्णकवच' के लिये याचना की। शंखचूड़ने परम प्रसन्नतापूर्वक कवच उन्हें दे दिया। इसी बीच भगवान् शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे भी मिल आये थे। इधर शंकरजीने भगवान् श्रीहरिका दिया हुआ त्रिशूल उठाकर हाथपर आजमाया और उसे शंखचूड़पर चला दिया। शंखचूड़ने भी सारा रहस्य जानकर अपना धनुष धरतीपर फेंक दिया और बुद्धिपूर्वक योगासन लगाकर भक्तिके साथ अनन्यचित्तसे भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलका ध्यान करने लगा। त्रिशूल कुछ समयतक तो चक्कर काटता रहा। तदनन्तर वह शंखचूड़के ऊपर जा गिरा। उसके गिरते ही तुरंत वह दानवेश्वर तथा उसका रथ सभी जलकर भस्म हो गये।

दानव-शरीरके भस्म होते ही उसने एक दिव्य गोपका शरीर धारण कर लिया। इतनेमें अकस्मात् सर्वोत्तम दिव्य मणियोंद्वारा निर्मित एक दिव्य विमान गोलोकसे उतर आया तथा शंखचूड़ उसीपर सवार होकर गोलोकके लिये प्रस्थित हो गया।

शंखचूड़की हड्डियोंसे शंखकी उत्पत्ति हुई। वही शंख अनेक प्रकारके रूपोंमें देवताओंकी पूजामें अत्यन्त पवित्र माना जाता है, उसके जलको श्रेष्ठ मानते हैं। जो शंखके जलसे स्नान कर लेता है उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नानका फल प्राप्त होता है। शंख साक्षात् भगवान् श्रीहरिका अधिष्ठान है। जहाँ शंख रहता है अथवा शंखध्वनि होती है, वहाँ भगवान् श्रीहरि भगवती लक्ष्मीसहित सदा निवास करते हैं और अमंगल दूरसे ही भाग जाता है।

भगवान् विष्णुने वैष्णवी माया फैलाकर शंखचूड़से कवच लेनेके बाद शंखचूड़का ही रूप धारण करके साध्वी तुलसीके घर पहुँचे। तुलसीने जब जान लिया कि यह शंखचूड़-रूपमें कोई अन्य है, तब तुलसीने पूछा कि 'मायेश! बताओ तो तुम कौन हो? तुमने कपटपूर्वक मेरा सतीत्व नष्ट कर दिया, अतः मैं तुम्हें शाप दूँगी।'

तुलसीके वचन सुनकर शापके भयसे भगवान् श्रीहरिने लीलापूर्वक अपना सुन्दर मनोहर स्वरूप प्रकट कर दिया। देवी तुलसीने अपने सामने उन सनातन प्रभु देवेश्वर श्रीहरिको विराजमान देखा। भगवान् श्रीहरिने कहा-'भद्रे! तुम मेरे लिये बदरीवनमे रहकर बहुत तपस्या कर चुकी हो। अब तुम इस शरीरका त्याग कर दिव्य देह धारण करो और मेरे साथ आनन्द करो। लक्ष्मीके समान तुम्हें सदा मेरे साथ रहना चाहिये। तुम्हारा यह शरीर गण्डकी नदीके रूपमें प्रसिद्ध होगा, जो मनुष्योंको उत्तम पुण्य देनेवाली बनेगी। तुम्हारा केशकलाप पवित्र वृक्ष होगा। तुलसीके नामसे ही उसकी प्रसिद्धि होगी। देव-पूजामें आनेवाले त्रिलोकीके जितने पत्र और पुष्प हैं, उन सबमें वह प्रधान मानी जायगी। तुलसी-वृक्षके नीचेके स्थान परम पवित्र होंगे। तुलसीसे गिरे पत्ते प्राप्त करनेके लिये समस्त देवताओंके साथ मैं भी रहूँगा।' तुलसी-पत्रके जलसे जिसका अभिषेक हो गया, उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नात तथा समस्त यज्ञोंमें दीक्षित समझना चाहिये। हजारों घड़े अमृतसे भगवान् श्रीहरिको जो तृप्ति होती है उतनी ही तृप्ति वे तुलसीके एक पत्तेके चढ़ानेसे प्राप्त करते हैं। दस हजार गोदानसे जो पुण्य होता है, वही फल कार्तिकमासमे तुलसी-पत्र दानसे सुलभ है। मृत्युके अवसरपर जिसके मुखमें तुलसी-पत्र-जल प्राप्त हो जाता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो भगवान् श्रीविष्णुके लोकका अधिकारी बन जाता है। तुलसीकाष्ठकी मालाको गलेमें धारण करनेवाला पद-पदपर अश्वमेध-यज्ञके फलका भागी होता है।

'तुलसी! तुम्हारे शापको सत्य करनेके लिये मैं 'पाषाण'-शालग्राम बनूँगा। गण्डकी नदीके तटपर मेरा वास होगा।' इस प्रकार देवी तुलसीसे कहकर भगवान् श्रीहरि मौन हो गये। देवी तुलसी अपने शरीरको त्यागकर दिव्य रूपसे सम्पन्न हो भगवान् श्रीहरिके वक्षःस्थलपर लक्ष्मीकी भांति शोभा पाने लगी। कमलापति भगवान् श्रीहरि उसे साथ लेकर वैकुण्ठ पधार गये। लक्ष्मी, गंगा, सरस्वती और तुलसी-ये चार देवियों भगवान् श्रीहरिकी पत्नियाँ हुईं। तुलसीकी देहसे गण्डकी नदीकी उत्पत्ति हुई और भगवान् श्रीहरि भी उसीके तटपर मनुष्योंके लिये पुण्यप्रद शालग्राम-पर्वत बन गये। (देवीभागवतपुराण )

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