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गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 939
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....

मुनिवर गौतमद्वारा कृतघ्न ब्राह्मणोंको शाप
एक बार इन्द्रने लगातार पंद्रह वर्षोंतक पृथ्वीपर वर्षा नहीं की। इस अनावृष्टिके कारण घोर दुर्भिक्ष पड़ गया। सभी मानव क्षुधा-तृषासे पीड़ित हो एक-दूसरेको खानेके लिये उद्यत थे। ऐसी बुरी स्थितिमें कुछ ब्राह्मणोंने एकत्र होकर यह विचार किया कि 'गौतमजी तपस्याके बड़े धनी हैं। इस अवसरपर वे ही हम सबके दुःखोंको दूर करनेमें समर्थ हैं। वे मुनिवर इस समय अपने आश्रमपर गायत्रीकी उपासना कर रहे हैं। अतः हम सभीको उनके पास चलना चाहिये।'

ऐसा विचार कर वे सभी ब्राह्मण अपने अग्निहोत्रके सामान, कुटुम्ब, गोधन तथा दास-दासियोंको साथ लेकर गौतमजीके आश्रमपर गये। इसी विचारसे अनेक दिशाओंसे बहुतसे अन्य ब्राह्मण भी वहाँ पहुँच गये। ब्राह्मणोंके इस बड़े समाजको उपस्थित देखकर गौतमजीने उन्हें प्रणाम किया और आसन आदि उपचारोंसे उनकी पूजा की। कुशल-प्रश्रके अनन्तर उन्होंने उस सम्पूर्ण ब्राह्मणसमाजसे आगमनका कारण पूछा। तब सम्पूर्ण ब्राह्मणोंने अपना-अपना दुःख उनके सामने निवेदित किया। सारे समाचारको जानकर मुनिने उन सब लोगोंको अभय प्रदान करते हुए कहा-'विप्रो! यह आश्रम आपलोगोंका ही है। मैं सर्वथा आपलोगोंका दास हूँ। मुझ दासके रहते आपलोगोंको चिन्ता नहीं करनी चाहिये। संध्या और जपमें परायण रहनेवाले आप सभी द्विजगण सुखपूर्वक मेरे यहाँ रहनेकी कृपा करें।' इस प्रकार ब्राह्मण-समाजको आश्वासन देकर मुनिवर गौतमजी भक्ति-विनम्र हो वेदमाता गायत्रीकी स्तुति करने लगे। गौतमजीके स्तुति करनेपर भगवती गायत्री उनके सामने प्रकट हो गयीं।

ऋषि गौतमपर प्रसन्न होकर भगवती गायत्रीने उन्हें एक ऐसा पूर्णपात्र दिया, जिससे सबके भरण-पोषणकी व्यवस्था हो सकती थी। उन्होंने मुनिसे कहा-'मुने! तुम्हें जिस-जिस वस्तुकी इच्छा होगी, मेरा दिया हुआ यह पात्र उसे पूर्ण कर देगा।' यों कहकर श्रेष्ठ कला धारण करनेवाली भगवती गायत्री अन्तर्धान हो गयीं। महात्मा गौतम जिस वस्तुकी इच्छा करते थे, वह देवी गायत्रीद्वारा दिये हुए पूर्णपात्रसे उन्हें प्राप्त हो जाती थी। उसी समय मुनिवर गौतमजीने सम्पूर्ण मुनिसमाजको बुलाकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक धन-धान्य, वस्त्राभूषण आदि समर्पित किया। उनके द्वारा गवादि पशु तथा स्त्राक्-स्त्रुवा आदि यज्ञकी सामग्रियाँ जो सब-की-सब भगवती गायत्रीके पूर्णपात्रसे निकली थीं, आये हुए ब्राह्मणोंको प्राप्त हुईं। तत्पश्चात् सभी लोग एकत्र होकर गौतमजीकी आज्ञासे यज्ञ करने लगे। इस प्रकार भयंकर दुर्भिक्षके समयमें भी गौतमजीके आश्रमपर नित्य उत्सव मनाया जाता था। न किसीको रोगका किंचिन्मात्र भय था, न असुरोंके उत्पातादिका ही। गौतमजीका वह आश्रम चारों ओरसे सौ-सौ योजनके विस्तारमें था। धीरे-धीरे अन्य बहुतसे लोग भी वहाँ आये और आत्मज्ञानी मुनिवर गौतमजीने सभीको अभय प्रदान करके उनके भरण-पोषणकी व्यवस्था कर दी। उन ऋषिश्रेष्ठके द्वारा अनेक यज्ञोंके सम्पादित किये जानेपर यज्ञ-भाग पाकर संतुष्ट हुए देवताओंने भी गौतमजीके यशकी पर्याप्त प्रशंसा की।

इस प्रकार मुनिवर गौतमजी बारह वर्षोंतक श्रेष्ठ मुनियोंके भरण-पोषणकी व्यवस्था करते रहे, तथापि उनके मनमें कभी लेशमात्र भी अभिमान नहीं हुआ। उन्होंने अपने आश्रममें ही गायत्रीकी आराधनाके लिये एक श्रेष्ठ स्थानका निर्माण करवा दिया था, जहाँ सभी लोग जाकर भगवती जगदम्बा गायत्रीकी उपासना करते थे।

एक बार गौतमजीके आश्रममें देवर्षि नारदजी पधारे। वे वीणा बजाकर भगवतीके उत्तम गुणोंका गान कर रहे थे। वहाँ आकर वे पुण्यात्मा मुनियोंकी सभामें बैठ गये। गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियोंने उनका विधिवत् स्वागत-सत्कार किया। तत्पश्रात् नारदजीने कहा-'मुने! मैं देवसभामें गया था। वहाँ देवराज इन्द्रने आपकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि मुनिने सबका भरण-पोषण करके विशाल निर्मल यश प्राप्त किया है। भगवती गायत्रीके कृपा-प्रसादसे तुम धन्यवादके पात्र बन गये हो।' ऐसा कहकर देवीकी स्तुति करके नारदजी वहाँसे चले गये।

उस समय वहाँ जितने भी ब्राह्मण थे, मुनिके द्वारा ही उन सबके भरण-पोषणकी व्यवस्था होती थी, परंतु उनमेंसे कुछ कृतघ्न ब्राह्मण गौतमजीके इस उत्कर्षको सुनकर ईर्ष्यासे जल उठे। तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद धरापर वृष्टि भी होने लगी और धीरे-धीरे सम्पूर्ण देशमें सुभिक्ष हो गया। तब अपनी जीविकाके प्रति आश्वस्तमना उन द्वेषी ब्राह्मणोंने गौतमजीकी निन्दा एवं उन्हें शाप देनेके विचारसे एक मायाकी गौ बनायी, जो बहुत ही कृशकाय एवं मरणासन्न थी। जिस समय मुनिवर गौतमजी यज्ञशालामें हवन कर रहे थे, उसी क्षण वह गौ वहाँ पहुँची। मुनिने 'हुँ हुँ'-शब्दोंसे उसे वारण किया। इतनेमें ही उस गौके प्राण निकल गये। फिर तो उन दुष्ट ब्राह्मणोंने यह हल्ला मचा दिया कि गौतमने गौकी हत्या कर दी।

मुनिवर गौतमजी भी हवन समाप्त करनेके पश्चात् इस घटित घटनापर अत्यन्त आश्रर्य करने लगे। वे आँखें मूँदकर समाधिमें स्थित हो इसके कारणपर विचार करने लगे। उन्हें तत्काल पता लग गया कि यह सब उन द्वेषी ब्राह्मणोंका ही कुचक्र है। उस समय क्रोधसे भरे हुए प्रलयकालीन रुद्रके समान अत्यन्त तेजस्वी ऋषिवर गौतमने उन द्वेषी ब्राह्मणोंको शाप देते हुए कहा-'अरे अधम ब्राह्मणो! आजसे तुम सदाके लिये अधम बन जाओ। तुम्हारा वेदमाता गायत्रीके ध्यान और मन्त्र-जपमें कोई अधिकार न हो। गौ आदि दान और पितरोंके श्राद्धसे तुम विमुख हो जाओ। कृच्छ्, चान्द्रायण तथा प्रायश्चित्तव्रतमें तुम्हारा सदाके लिये अनधिकार हो जाय। तुमलोग पिता, माता, पुत्र, भाई, कन्या एवं भार्याका विक्रय करनेवाले व्यक्तिके समान नीचताको प्राप्त करो। अधम ब्राह्मणो! वेदका विक्रय करनेवाले तथा तीर्थ एवं धर्म बेचनेमें लगे हुए नीच व्यक्तियोंको जो गति मिलती है, वही तुम्हें प्राप्त हो। तुम्हारे वशमें उत्पन्न स्त्री एवं पुरुष मेरे दिये हुए शापसे दग्ध होकर तुम्हारे ही समान होंगे। गायत्री-नामसे प्रसिद्ध मूलप्रकृति भगवती जगदम्बाका अवश्य ही तुमपर महान् कोप है। अतएव तुम अन्धकूपादि नरकोंमें अनन्त कालतक निवास करो।'

इस प्रकार द्वेषी ब्राह्मणोंको वाणीद्वारा दण्ड देनेके पक्षात् गौतमजीने जचलसे आचमन किया। तदनन्तर शापसे दग्ध होनेके कारण उन ब्राह्मणोंने जितना वेदाध्ययन किया था, वह सब-का- सब विस्मृत हो गया। गायत्री-महामन्त्र भी उनके लिये अनभ्यस्त हो गया। तब इस भयानक स्थितिको प्राप्त करके वे सब अत्यन्त पश्चात्ताप करने लगे। फिर उन 'लोगोंने मुनिके सामने दण्डकी भांति पृथ्वीपर लेटकर उन्हें प्रणाम किया। लज्जाके कारण उनके सिर झुके हुए थे। वे बार-बार यही कह रहे थे-'मुनिवर! प्रसन्न होइये।' जब मुनि गौतमको चारों ओरसे घेरकर वे प्रार्थना करने लगे, तब दयालु मुनिका हृदय करुणासे भर गया। उन्होंने उन नीच ब्राह्मणोंसे कहा-'ब्राह्मणो! जबतक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका अवतार नहीं होगा, तबतक तो तुम्हें कुम्भीपाक नरकमें अवश्य रहना पड़ेगा; क्योंकि मेरा वचन मिथ्या नहीं हो सकता। इसके बाद तुमलोगोंका भूमण्डलपर कलियुगमें जन्म होगा। हाँ यदि तुम्हें शाप-मुक्त होनेकी इच्छा है तो तुम सबके लिये यह परम आवश्यक है कि भगवती गायत्रीके चरण-कमलकी सतत उपासना करो, उसीसे कल्याण होगा। (देवीभागवतपुराण)

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