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गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 939
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....

वेदमालिको भगवत्प्राप्ति
प्राचीन कालकी बात है। रैवत-मन्वन्तरमें वेदमालि नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेदों और वेदांगोंके पारदर्शी विद्वान् थे। उनके मनमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दया भरी हुई थी। वे सदा भगवान्की पूजामें लगे रहते थे, किंतु आगे चलकर वे स्त्री, पुत्र और मित्रोंके लिये धनोपार्जन करनेमें संलग्न हो गये। जो वस्तु नहीं बेचनी चाहिये, उसे भी वे बेचने लगे। उन्होंने रसका भी विक्रय किया। वे चाण्डाल आदिसे भी दान ग्रहण करते थे। उन्होंने पैसे लेकर तपस्या और व्रतोंका विक्रय किया और तीर्थयात्रा भी वे दूसरोंके लिये ही करते थे। यह सब उन्होंने अपनी स्त्रीको संतुष्ट करनेके लिये ही किया। इसी तरह कुछ समय बीत जानेपर ब्राह्मणके दो-जुड़वे पुत्र हुए, जिनका नाम था-यज्ञमाली और सुमाली। वे दोनों बड़े सुन्दर थे। तदनन्तर पिता उन दोनों बालकोंका बड़े स्नेह और वात्सल्यसे अनेक प्रकारके साधनोंद्वारा पालन-पोषण करने लगे। वेदमालिने अनेक उपायोंसे यत्नपूर्वक धन एकत्र किया।

एक दिन मेरे पास कितना धन है यह जाननेके लिये उन्होंने अपने धनको गिनना प्रारम्भ किया। उनका धन संख्यामें बहुत ही अधिक था। इस प्रकार धनकी स्वयं गणना करके वे हर्षसे फूल उठे। साथ ही उस अर्थकी चिन्तासे उन्हें बड़ा विस्मय भी हुआ। वे सोचने लगे-'मैंने नीच पुरुषोंसे दान लेकर, न बेचने योग्य वस्तुओंका विक्रय करके तथा तपस्या आदिको भी बेचकर यह प्रचुर धन पैदा किया है, किंतु मेरी अत्यन्त दुःसह तृष्णा अब भी शान्त नहीं हुई। अहो! मैं तो समझता हूँ, यह तृष्णा बहुत बड़ी कष्टप्रदा है, समस्त क्लेशोंका कारण भी यही है। इसके कारण मनुष्य यदि समस्त कामनाओंको प्राप्त कर ले तो भी पुनः दूसरी वस्तुओंकी अभिलाषा करने लगता है। जरावस्था (बुढ़ापे)-में आनेपर मनुष्यके केश पक जाते हैं, दाँत गल जाते हैं, आँख और कान भी जीर्ण हो जाते हैं, किंतु एक तृष्णा ही तरुण-सी होती जाती है। मेरी सारी इन्द्रियों शिथिल हो रही हैं, बुढ़ापेने मेरे बलको भी नष्ट कर दिया, किंतु तृष्णा तरुणी होकर और भी प्रबल हो उठी है। जिसके मनमें कष्टदायिनी तृष्णा मौजूद है, वह विद्वान् होनेपर भी मूर्ख, परम शान्त होनेपर भी अत्यन्त क्रोधी और बुद्धिमान् होनेपर भी अत्यन्त मूढ़बुद्धि हो जाता है। आशा मनुष्योंके लिये अजेय शत्रुकी भांति भयंकर है, अतः विद्वान् पुरुष यदि शाश्वत सुख चाहे तो आशाको त्याग दे। बल हो, तेज हो, विद्या हो, यश हो, सम्मान हो, नित्य वृद्धि हो रही हो और उत्तम कुलमें जन्म हुआ हो तो भी यदि मनमें आशा एवं तृष्णा बनी हुई है तो वह बड़े वेगसे इन सबपर पानी फेर देती है। मैंने बड़े क्लेशसे यह धन कमाया है। अब मेरा शरीर भी गल गया। अतः अब मैं उत्साहपूर्वक परलोक सुधारनेका यत्न करूँगा।' ऐसा निश्चय करके वेदमालि धर्मके मार्गपर चलने लगे। उन्होंने उसी क्षण सारे धनको चार भागोंमें बाँटा। अपने द्वारा पैदा किये उस धनमेंसे दो भाग तो ब्राह्मणने स्वयं रख लिये और शेष दो भाग दोनों पुत्रोंको दे दिये। तदनन्तर अपने किये हुए पापोंका नाश करनेकी इच्छासे उन्होंने जगह-जगह पौंसले, पोखरे, बगीचे और बहुत-से देवमन्दिर बनवाये तथा गंगाजीके तटपर अन्न आदिका दान भी किया।

इस प्रकार सम्पूर्ण धनका दान करके भगवान् विष्णुके प्रति भक्तिभावसे युक्त हो वे तपस्याके लिये नर-नारायणके आश्रम बदरीवनमें गये। वहाँ उन्होंने एक अत्यन्त रमणीय आश्रम देखा, जहाँ बहुत-से ऋषि-मुनि रहते थे। फल और फूलोंसे भरे हुए वृक्षसमूह उस आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे। शास्त्र-चिन्तनमें तत्पर, भगवत्सेवापरायण तथा परब्रह्म परमेश्वरकी स्तुतिमें संलग्न अनेक वृद्ध महर्षि उस आश्रमकी श्रीवृद्धि कर रहे थे। वेदमालिने वहाँ जाकर जानन्ति नामवाले एक मुनिका दर्शन किया, जो शिष्योंसे घिरे बैठे थे और उन्हें परब्रह्म-तत्त्वका उपदेश कर रहे थे। वे मुनि महान् तेजके प्र-से जान पड़ते थे। उनमें शम, दम आदि सभी गुण विराजमान थे और राग आदि दोषोंका सर्वथा अभाव था। वे सूखे पत्ते खाकर रहा करते थे। वेदमालिने मुनिको देखकर उन्हें प्रणाम किया। जानन्तिने कन्द, मूल और फल आदि सामग्रियोंद्वारा नारायण-बुद्धिसे अतिथि वेदमालिका पूजन किया। अतिथि-सत्कार हो जानेपर वेदमालिने हाथ जोड़ विनयसे मस्तक झुकाकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षिसे कहा-'भगवन-!' मैं कृतकृत्य हो गया। आज मेरे सब पाप दूर हो गये। महाभाग! आप विद्वान् हैं, अतः ज्ञान देकर मेरा उद्धार कीजिये।'

वेदमालिके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ जानन्ति बोले-'ब्रह्मन्! तुम प्रतिदिन सर्वश्रेष्ठ भगवान- विष्णुका भजन करो। सर्वशक्तिमान् श्रीनारायणका चिन्तन करते रहो। दूसरोंकी निन्दा और चुगली कभी न करो। महामते! सदा परोपकारमें लगे रहो। भगवान-विष्णुकी पूजामें मन लगाओ और मूर्खोंसे मिलना-जुलना छोड़ दो। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य छोड़कर लोकको अपने आत्माके समान देखो, इससे तुम्हें शान्ति मिलेगी। ईर्ष्या, दोषदृष्टि तथा दूसरेकी निन्दा भूलकर भी न करो। पाखण्डपूर्ण आचार, अहंकार और क्रूरताका सर्वथा त्याग करो। सब प्राणियोंपर दया तथा साधु पुरुषोंकी सेवा करते रहो। अपने किये हुए धर्मोंको पूछनेपर भी दूसरोंपर प्रकट न करो। दूसरों को अत्याचार करते देखो, यदि शक्ति हो तो उन्हें रोको, असावधानी न करो। अपने कुटुम्बका विरोध न करते हुए सदा अतिथियोंका स्वागत-सत्कार करो। पत्र, पुष्प, फल, दूर्वा और पल्लवोंद्वारा निष्कामभावसे जगदीश्वर भगवान् नारायणकी पूजा करो। देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण करो। विप्रवर! विधिपूर्वक अग्निकी सेवा भी करते रहो। देवमन्दिरमें प्रतिदिन झाड़ू लगाया करो और एकाग्रचित्त होकर उसकी लिपाई-पुताई भी किया करो। देवमन्दिरकी दीवारमें जहाँ-कहीं कुछ टूट-फूट गया हो, उसकी मरम्मत कराते रहो। मन्दिरमें प्रवेशका जो मार्ग हो, उसे पताका और पुष्प आदिसे सुशोभित करो तथा भगवान् विष्णुके गृहमें दीपक जलाया करो। प्रतिदिन यथाशक्ति पुराणकी कथा सुनो। उसका पाठ करो और वेदान्तका स्वाध्याय करते रहो। ऐसा करनेपर तुम्हें परम उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा। ज्ञानसे समस्त पापोंका निश्चय ही निवारण एवं मोक्ष हो जाता है।'

जानन्ति मुनिके इस प्रकार उपदेश देनेपर परम बुद्धिमान् वेदमालि उसी प्रकार ज्ञानके साधनमें लगे रहे। वे अपने-आपमे ही परमात्मा भगवान् अच्युतका दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुए। 'मैं ही उपाधिरहित स्वयंप्रकाश निर्मल ब्रह्म हूँ'-ऐसा निश्चय करनेपर उन्हें परम शान्ति प्राप्त हुई। (नारदपुराण)

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