गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँगीताप्रेस
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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....
इन्द्र का गर्व-भंग
शचीपति देवराज इन्द्र कोई साधारण व्यक्ति नहीं, एक मन्वन्तरपर्यन्त रहनेवाले
स्वर्गके अधिपति हैं। घड़ी-घंटोंके लिये जो किसी देशका प्रधान मन्त्री बन
जाता है, उसके नामसे लोग घबराते हैं, फिर जिसे एकहत्तर दिव्य युगोंतक
अप्रतिहत दिव्य भोगोंका साम्राज्य प्राप्त है, उसे गर्व होना तो स्वाभाविक है
ही। इसीलिये इनके गर्व-भंगकी कथाएँ भी बहुत हैं। दुर्वासाने इन्हें शाप देकर
स्वर्गको श्रीविहीन किया। वृत्रासुर, विश्वरूप, नमुचि आदि दैत्योंके मारनेपर
इन्हें बार-बार ब्रह्महत्या लगी। वृहस्पतिके अपमानपर पश्चात्ताप, बलिद्वारा
राज्यापहरणपर दुर्दशा तथा गोवर्धनधारण एवं पारिजातहरण आदिमें भी कई बार इनका
मानभंग हुआ ही है। मेघनाद, रावण, हिरण्यकशिपु आदिने भी इन्हें बहुत नीचा
दिखलाया और बार-बार इन्हें दुष्यन्त, खट्वांग, अर्जुनादिसे सहायता लेनी पड़ी।
इस प्रकार इनके गर्वभञ्जनकी अनेकानेक कथाएँ हैं, तथापि ब्रह्मवैवर्तपुराणमें
इनके गर्वापहरणकी एक विचित्र कथा है, जो इस प्रकार है-एक बार इन्द्रने एक बड़ा विशाल प्रासाद बनवाना आरम्भ किया। इसमें पूरे सौ वर्षतक इन्होंने विश्वकर्माको छुट्टी नहीं दी। विश्वकर्मा बहुत घबराये। वे ब्रह्माजीकी शरणमें गये। ब्रह्माजीने भगवान्से प्रार्थना की। भगवान् एक ब्राह्मणबालकका रूप धारणकर इन्द्रके पास पहुँचे और पूछने लगे-'देवेन्द्र! मैं आपके अद्भुत भवननिर्माणकी बात सुनकर यहाँ आया हूँ। मैं जानना चाहता हूँ कि इस भवनको कितने विश्वकर्मा मिलकर बना रहे हैं और यह कबतक तैयार हो जायगा?'
इन्द्र बोले-'बड़े आश्चर्यकी बात है! क्या विश्वकर्मा भी अनेक होते हैं, जो तुम ऐसी बातें कर रहे हो?' बहुरूपी प्रभु बोले-'देवेन्द्र! तुम बस इतनेमें ही घबरा गये? सृष्टि कितने ढंगकी है, ब्रह्माण्ड कितने हैं, ब्रह्मा-विष्णु-शिव कितने हैँ, उन-उन ब्रह्माण्डोंमें कितने इन्द्र और विश्वकर्मा पड़े हैं-यह कौन जान सकता है? यदि कदाचित् कोई पृथ्वीके धूलिकणोंको गिन भी सके, तो भी विश्वकर्मा अथवा इन्द्रोंकी संख्या तो नहीं ही गिनी जा सकती। जिस तरह जलमें नौकाएँ दीखती हैं, उसी प्रकार महाविष्णुके लोमकूपरूपी सुनिर्मल जलमें असंख्य ब्रह्माण्ड तैरते दीख पड़ते हैं।'
इस तरह इन्द्र और वटुमें संवाद चल ही रहा था कि वहाँ दो सौ गज लम्बा-चौड़ा चींटोंका एक विशाल समुदाय दीख पड़ा। उन्हें देखते ही वटुको सहसा हँसी आ गयी। इन्द्रने उनकी हँसीका कारण पूछा। वटुने कहा-'हँसता इसलिये हूँ कि यहाँ जो ये चींटे दिखलायी पड़ रहे हैं, वे सब कभी पहले इन्द्र हो चुके हैं, किंतु कर्मानुसार इन्हें अब चींटेकी योनि प्राप्त हुई है। इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं करना चाहिये; क्योंकि कर्मोंकी गति ही ऐसी गहन है। जो आज देवलोकमें है, वह दूसरे क्षण कभी कीट, वृक्ष या अन्य स्थावर योनियोंको प्राप्त हो सकता है।' भगवान् ऐसा कह ही रहे थे कि उसी समय कृष्णाजिनधारी, उज्ज्वल तिलक लगाये, चटाई ओढ़े एक ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध। महात्मा वहाँ पहुँच गये। इन्द्रने उनकी यथालब्ध उपचारोंसे पूजा। की। अब वटुने महात्मासे पूछा-'महात्मन्! आपका नाम क्या है, आप कहां से आ रहे हैं, आपका निवासस्थल कहाँ है और आप कहाँ जा रहे हैं? आपके मस्तकपर यह चटाई क्यों है तथा आपके वक्षःस्थलपर यह लोमचक्र कैसा है?'
आगन्तुक मुनिने कहा-थोड़ी-सी आयु होनेके कारण मैंने कहीं घर नहीं बनाया, न विवाह ही किया और न कोई जीविका ही खोजी। वक्षःस्थलके लोमचक्रोंके कारण लोग मुझे लोमश कहा करते हैं और वर्षा तथा गर्मीसे रक्षाके लिये मैंने अपने सिरपर यह चटाई रख छोड़ी है। मेरे वक्षःस्थलके लोम मेरी आयु-संख्याके प्रमाण हैं। एक इन्द्रका पतन होनेपर मेरा एक रोम गिर पड़ता है। यही मेरे उखड़े हुए कुछ रोमोंका रहस्य भी है। ब्रह्माके द्विपरार्धावसानपर मेरी मृत्यु कही जाती है। असंख्य ब्रह्मा मर गये और मरेंगे। ऐसी दशामें मैं पुत्र, कलह या गृह लेकर ही क्या करूँगा? भगवान्की भक्ति ही सर्वोपरि, सर्वसुखद तथा दुर्लभ है। वह मोक्षसे भी बढ़कर है। ऐश्वर्य तो भक्तिके व्यवधानस्वरूप तथा स्वप्नवत् मिथ्या है। जानकार लोग तो उस भक्तिको छोड़कर सालोक्यादि मुक्तिचतुष्टयको भी नहीं ग्रहण करते।
दुर्लभं श्रीहरेर्दास्यं भक्तिर्मुक्तेर्गरीयसी।
स्वप्नवत् सर्वमैश्वर्यं सद्भक्तिव्यवधायकम्।।
-यों कहकर लोमशजी अन्यत्र चले गये। बालक भी वहीं अन्तर्धान हो गया। बेचारे इन्द्रका तो अब होश ही ठंडा हो गया। उन्होंने देखा कि जिसकी इतनी दीर्घ आयु है, वह तो एक घासकी झोपड़ी भी नहीं बनाता, केवल चटाईसे ही काम चला लेता है, फिर मुझे कितने दिन रहना है, जो इस घरके चक्करमें पड़ा हूँ। बस, झट उन्होंने विश्वकर्माको एक लम्बी रकमके साथ छुट्टी दे दी और आप अत्यन्त विरक्त होकर किसी वनस्थलीकी ओर चल पड़े। पीछे वृहस्पतिजीने उन्हें समझा-बुझाकर पुनः राज्यकार्यमें नियुक्त किया। (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
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