गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँगीताप्रेस
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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....
गणेशजीपर शनिकी दृष्टि
एक बार कैलास पर्वतपर, महायोगी सूर्यपुत्र शनैश्चर शंकरनन्दन गणेशको देखनेके
लिये आये। उनका मुख अत्यन्त नम्र था, आँखें कुछ मुँदी हुई थीं और मन एकमात्र
श्रीकृष्णमें लगा हुआ था, अतः वे बाहर-भीतर श्रीकृष्णका स्मरण कर रहे थे। वे
तपःफलको खानेवाले, तेजस्वी, धधकती हुई अग्निकी शिखाके समान प्रकाशमान,
अत्यन्त सुन्दर, श्यामवर्ण और पीताम्बर धारण किये हुए थे। उन्होंने वहाँ पहले
विष्णु ब्रह्मा, शिव, धर्म, सूर्य, देवगणों और मुनिवरोंको प्रणाम किया। फिर
उनकी आज्ञासे वे उस बालकको देखनेके लिये गये। भीतर जाकर शनैश्चरने सिर झुकाकर
पार्वतीदेवीको नमस्कार किया। उस समय वे पुत्रको छातीसे चिपटाये रत्नसिंहासनपर
विराजमान हो आनन्दपूर्वक मुस्करा रही थीं। पाँच सखियाँ निरन्त उनपर श्वेत
चँवर डुलाती जाती थीं। वे सखीद्वारा दिये गये सुवासित ताम्बूलको चबा रही थीं।
उनके शरीरपर वह्निशुद्ध स्वर्णिम साड़ी शोभायमान थी। रत्नोंके आभूषण उनकी
शोभा बढ़ा रहे थे। सहसा सूर्यनन्दन शनैक्षरको सिर झुकाये देखकर पार्वतीजीने
उन्हें शीघ्र ही शुभाशीर्वाद दिया और उनका कुशल-मंगल पूछा-'ग्रहेश्वर! इस समय
तुम्हारा मुख नीचेकी ओर क्यों झुका हुआ है तथा तुम मुझे अथवा इस बालककी ओर
देख क्यों नहीं रहे हो?'शनैश्चरने कहा-'शंकरवल्लभे! मैं एक परम गोपनीय इतिहास, यद्यपि वह लज्जाजनक तथा माताके समक्ष कहने योग्य नहीं है, तथापि आपसे कहता हूँ, सुनिये। मैं बचपनसे ही श्रीकृष्णका भक्त था। मेरा मन सदा एकमात्र श्रीकृष्णके ध्यानमें ही लगा रहता था। मैं विषयोंसे विरक्त होकर निरन्तर तपस्यामें रत रहता था। पिताजीने चित्ररथकी कन्यासे मेरा विवाह कर दिया। वह सती-साध्वी नारी अत्यन्त तेजस्विनी तथा सतत तपस्यामें रत रहनेवाली थी। एक दिन ऋतुस्नान करके वह मेरे पास आयी। उस समय मैं भगवच्चरणोंका ध्यान कर रहा था। मुझे बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं था। अतः मैंने उसकी ओर देखा भी नहीं। पत्नीने अपना ऋतुकाल निष्फल जानकर मुझे शाप दे दिया कि 'तुम अब जिसकी ओर दृष्टि डालोगे, वही नष्ट हो जायगा।' तदनन्तर जब मैं ध्यानसे विरत हुआ, तब मैंने उस सतीको संतुष्ट किया, परंतु अब तो वह शापसे मुक्त करानेमें असमर्थ थी, अतः पश्चात्ताप करने लगी। माता! इसी कारण मैं किसी वस्तुको अपने नेत्रोंसे नहीं देखता और तभीसे मैं जीवहिंसाके भयसे स्वाभाविक ही अपने मुखको नीचे किये रहता हूँ।' शनैश्चरकी बात सुनकर पार्वती हँसने लगीं। इसपर नर्तकियों तथा किंनरियोंका सारा समुदाय भी ठहाका मारकर हँस पड़ा।
शनैश्चरका वचन सुनकर पार्वतीजीने परमेश्वर श्रीहरिका स्मरण किया और इस प्रकार कहा-'सारा जगत् ईश्वरकी इच्छाके वशीभूत ही है।' फिर दैववशीभूता पार्वतीदेवीने कौतूहलवश शनैश्चरसे कहा-'तुम मेरी तथा मेरे बालककी ओर देखो। भला, इस निषेक (कर्मफलभोग) को कौन हटा सकता है?' तब पार्वतीका वचन सुनकर शनैश्चर स्वयं मन-ही-मन यों विचार करने लगे-'अहो! क्या मैं इस पार्वतीनन्दनपर दृष्टिपात करूँ अथवा न करूँ? क्योंकि यदि मैं बालकको देख लूँगा तो निश्रय ही उसका अनिष्ट हो जायगा।' इस प्रकार कहकर धर्मात्मा शनैश्चरने धर्मको साक्षी बनाकर बालकको तो देखनेका विचार किया, परंतु बालककी माताको नहीं। शनैश्चरका मन तो पहलेसे ही खिन्न था। उनके कण्ठ, ओष्ठ और तालु भी सूख गये थे, फिर भी उन्होंने अपने बायें नेत्रके कोनेसे शिशुके मुखकी ओर निहारा। शनिकी दृष्टि पड़ते ही शिशुका मस्तक धड़से अलग हो गया। तब शनैश्चरने अपनी आँख फेर ली और फिर वे नीचे मुख करके खड़े हो गये। इसके पश्चात् उस बालकका खूनसे लथपथ हुआ सारा शरीर तो पार्वतीकी गोदमें पड़ा रह गया। परंतु मस्तक अपने अभीष्ट गोलोकमें जाकर श्रीकृष्णमें प्रविष्ट हो गया। यह देखकर पार्वतीदेवी बालकको छातीसे चिपटाकर फूट-फूटकर विलाप करने लगीं और उन्मत्तकी भांति भूमिपर गिरकर मूर्च्छित हो गयीं। तब वहाँ उपस्थित सभी देवता, देवियाँ पर्वत, गन्धर्व, शिव तथा कैलासवासी जन यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उस समय उनकी दशा चित्रलिखित पुत्तलिकाके समान जड़ हो गयी।
इस प्रकार उन सबको मूर्च्छित देखकर श्रीहरि गरुडपर सवार हुए और उत्तरदिशामे स्थित पुष्पभद्राके निकट गये। वहाँ उन्होंने पुष्पभद्रा नदीके तटपर वनमें स्थित एक गजेन्द्रको देखा, जो निद्राके वशीभूत हो बच्चोंसे घिरकर हथिनीके साथ सो रहा था। उसका सिर उत्तर दिशाकी ओर था, मन परमानन्दसे पूर्ण था और वह परिश्रमसे थका हुआ था। फिर तो श्रीहरिने शीघ्र ही सुदर्शनचक्रसे उसका सिर काट लिया और रक्तसे भीगे हुए उस मनोहर मस्तकको बड़े हर्षके साथ गरुडपर रख लिया। गजके कटे हुए अंगके गिरनेसे हथिनीकी नींद टूट गयी। तब अमंगल शब्द करती हुई उसने अपने शावकोंको भी जगाया। फिर वह शोकसे विह्वल हो शावकोंके साथ विलख-विलखकर चीत्कार करने लगी। तत्पश्रात् उसने भगवान् विष्णुका स्तवन किया। उसकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर भगवान्ने उसे वर दिया और दूसरे गजका मस्तक काटकर इसके धड़से जोड़ दिया। फिर उन ब्रह्मवेत्ताने ब्रह्मज्ञानसे उसे जीवित कर दिया और उस गजेन्द्रके सर्वांगमें अपने चरणकमलका स्पर्श कराते हुए कहा-'गज! तू अपने कुटुम्बके साथ एक कल्पपर्यन्त जीवित रह।' इस प्रकार कहकर मनके समान वेगशाली भगवान् कैलासपर जा पहुँचे। वहाँ पार्वतीके वासस्थानपर आकर उन्होंने उस बालकको अपनी छातीसे चिपटा लिया और उस हाथीके मस्तकको सुन्दर बनाकर बालकके धड़से जोड़ दिया। फिर ब्रह्मस्वरूप भगवान्ने ब्रह्मज्ञानसे हुंकारोच्चारण किया और खेल-खेलमें ही उसे जीवित कर दिया। पुनः श्रीकृष्णने पार्वतीको सचेत करके उस शिशुको उनकी गोदमें रख दिया और आध्यात्मिक ज्ञानद्वारा पार्वतीको समझाना आरम्भ किया। श्रीविष्णुका कथन सुनकर पार्वतीका मन संतुष्ट हो गया। तब वे उन गदाधर भगवान्को प्रणाम करके शिशुको दूध पिलाने लगीं। तदनन्तर प्रसन्न हुई पार्वतीने शंकरजीकी प्रेरणासे अज्जलि बाँधकर भक्तिपूर्वक उन कमलापति भगवान् विष्णुकी स्तुति की। (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
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