गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँगीताप्रेस
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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....
सत्कर्ममें श्रमदानका अद्भुत फल
बृहत्कल्पकी बात है। उस समय धर्ममूर्ति नामक एड प्रभावशाली राजा थे। उनमें
कुछ अलौकिक शक्तियाँ थीं। वे इच्छाके अनुसार रूप बदल सकते थे। उनकी देहसे तेज
निकलता रहता था। दिनमें चलते तो सूर्यकी प्रभा मलिन जाती थी और रातमें चलते
तो चाँदनी फीकी पड़ जाती थी उन्होंने कभी पराजयका मुख नहीं देखा था। इन्द्रने
उनसे मित्रकर ली थी। उन्होंने कइ बार दैत्यों और दानवोंको हराया था उनकी
पत्नी भानुमती भी इतनी सुन्दरी थी कि उस समय लोकोंमें कोई नारी उसकी बराबरी
नहीं कर सकती थी। वह जितनी रूपवती थी, उतनी ही गुणवती भी थी।राजाका सबसे बड़ा सौभाग्य यह था कि उनके कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ थे। एक दिन उन्होंने बड़ी विनम्रतासे गुरुजीने पूछा-'गुरुदेव! मेरे पास इस समय जो सब तरहकी समृद्धियां एकत्रित हैं, इसका कारण बहुत बड़ा पुण्य होगा। पुण्यकर्मको मैं जानना चाहता हूँ जिससे उस तरहका कोई पुण्य मैं पुनः कर सकूँ, जिसके फलस्वरूप अगले जन्ममें मुझे तरहकी सुख-सुविधा प्राप्त हो।'
महर्षि वसिष्ठने बतलाया-'पूर्वकालमें लीलावती नामकी एक वेश्या थी। वह शिव-भक्तिमें लीन रहती थी। एक बार उसने पुष्कर-क्षेत्रमें चतुर्दशी तिथिको लवणाचल (नमकके पहाड़)-का दान किया था। उसने सोनेका एक वृक्ष भी तैयार करवाया था, जिसमें सोनेके फूल और सोनेकी ही देवताओंकी प्रतिमाएँ लगी थीं। इस स्वर्णवृक्षके निर्माणमें तुमने निष्कामभावसे उसकी सहायता की थी। उस समय तुम उस वेश्याके नौकर थे। सोनेके वृक्ष और फूल बनानेमें तुम्हें अतिरिक्त मूल्य मिल रहा था, किंतु तुमने उस वेतनको यह समझकर नहीं लिया कि यह धर्मका कार्य है। तुम्हारी पत्नीने उन फूलों और मूर्तियोंको तपा-तपाकर भलीभांति चमकाया था। तुम दोनों आज जो कुछ हो वह केवल उसी श्रमदानका फल है। उस जन्ममें तुम्हारे पास पैसे नहीं थे, इसलिये लीलावतीकी तरह तुमने कोई दान-पुण्य नहीं किया था। इस जन्ममें तुम राजा हो, अतः अन्नके पहाड़का विधि-विधानके साथ दान करो। जब केवल 'श्रमदान' से तुम सातों द्वीपोंके अधिपति हो गये हो और तुम्हारी पत्नी तीनों लोकोंमें अप्रतिम रूपवती और गुणवती बन गयी है, तब इस अन्नके पहाड़के दानका क्या फल होगा, इसे तुम स्वयं समझ सकते हो। देखो, इस लवणाचलके दानसे वेश्या भी शिवलोकको चली गयी और उसके सब पाप जलकर खाक हो गये थे।' धर्ममूर्तिने बड़े उत्साहके साथ अपने गुरुकी आज्ञाका पालन किया। (पद्यपुराण)
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