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रहस्य-रोमांच >> कर्फ्यू, शेर का बच्चा

कर्फ्यू, शेर का बच्चा

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :346
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9412
आईएसबीएन :9789383600465

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘धांय...धाय...धांय !’

‘‘भ...भैया !’’ कहीं दूर चलने वाली गोलियों ने सारे शहर को झंझोड़ डाला तो नन्ही और अपाहिज मोनू अपने पंद्रह वर्षीय भाई से लिपट गई। राम ने झट उसे बांहों में लेकर मासूम चेहरे को अपनी छाती में छुपा लिया। न सिर्फ दस वर्षीय मोनू का दिल बल्कि राम का दिल भी बुरी तरह कांप रहा था। दोनों के मासूम चेहरों पर दहशत के भाव थे। कम्पित स्वर में राम ने कहा था - ‘‘ड... डरती क्यों है पगली, मैं जो हूं तेरा भाई।’’

सारे शहर पर मौत की-सी खामोशी छाई हुई थी।
छोटे से कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था।
बाहर सड़क से ठक्-ठक्-ठक्...

पुलिस के भारी बूटों की आवाज आ रही थी। मानो वो पुलिसमैन दो नन्हे कलेजों पर चल रहे थे। सहमे-से वे दोनों उस आवाज को सुनते रहे। उनकी खिड़की के नीचे से गुजरने के बाद आवाज दूर होती चली गई। राम ने पूछा - ‘‘म... मोनू, बाबा कहां गए ?’’

‘‘त...तुझे ढूंढने गए हैं !’’ राम की छाती में मुंह छुपाए मोनू बोली।

‘‘म... मुझे ढूंढ़ने !’’ राम का चेहरा अचानक पीला पड़ता चला गया - ‘‘म... मोनू तूने बाबा को बाहर क्यों जाने दिया ? ब... बाहर कर्फ्यू लगा है। घर से बाहर निकलना मना है।’’

सहमकर चुप हो गया राम।

भारी बूटों की आवाज दरवाजे के बाहर आ रुकी थी। फिर दरवाजे पर पड़ने वाली दस्तक की आवाज ने उनके चेहरे पीले कर दिए। वे कांपने लगे। रामू ने पूछा - ‘‘क... कौन है ?’’

‘‘अरे-र...राम...!’’ प्रन्नता में डूबा स्वर - ‘‘दरवाजा खोल - मैं हूं -तेरा बाबा।’’

राम ने झपटकर दरवाजा खोला ! सामने देखते ही वह हड़बड़ा गया पी.ए.सी. के एक रायफलधारी जवान के साथ उसके बाबा खड़े थे। बाबा ने राम को गले लगा लिया।

भर्राए स्वर में वोले - ‘‘तू...तू कहां था मेरे बच्चे ? मेरे राम !’’

इससे पूर्व कि राम कुछ कहता, पी.ए.सी. के जवान ने कहा-‘‘अब बाहर न निकलना।’’

वह चला गया। बाबा ने दरवाजा बंद कर लिया। एक टूटी खाट पर बैठी नन्ही मोनू अपनी मासूम आंखों में आंसू लिए उन्हें देख रही थी। वह बेहद सुंदर थी मगर - उसके दोनों पैर खराब थे। कलाइयों से भी पतले। मुड़े हुए। नन्ही मोनू को पोलियो ने अपना शिकार बनाया था।

‘‘बाबा।’’ राम ने कहा - ‘‘म...मैंने उस आदमी को देखा है जिसने नेताजी को मारा था।’’

‘‘न...नहीं।’’ तड़पकर बाबा ने हथेली राम के मुंह पर रख दी - ‘‘ऐसा मत बोल बेटे - किसी के सामने ऐसा न कहना। तूने कुछ नहीं देखा - तू कुछ नहीं जानता।’’

बाबा की हथेली मुंह से हटाकर राम ने मासूम स्वर में कहा - ‘‘मैंने देखा है बाबा। मैं वहीं था। एक मकान की छत से उसने नेताजी को गोली मारी थी। उसने मुझे भी मारना चाहा, मगर मैं भाग गया। वह मेरे पीछे दौड़ा था। उसने गोली भी चलाई थी पर मैं...’’

बाबा ने उसका मुंह बंद कर दिया। तड़पकर अपने कलेजे से भींच लिया राम को। आंसू टपक पड़े। बोला - ‘‘भूल जा राम-भूल जा मेरे बेटे। तू नहीं जानता कि तू क्या कह रहा है ? समझ कि तूने कुछ नहीं देखा - तू कुछ नहीं जानता।’’

‘‘म...मगर बाबा - तुमने ही तो कहा था - सच बात कहने से कभी डरना नहीं चाहिए। गांधी बापू भी तो यही कहते थे। सच बोलना हम सबका कर्त्तव्य है।’’

बाबा ने उसे बहुत समझाया। वे रो पड़े। नन्हे राम के पैरों में गिरकर उन्होंने कहा था - ‘‘मुझ पर दया कर दे बेटे। खुद को मुझसे न छीन। म...मैं तेरे बिना नहीं रह सकूंगा।’’

बाबा को खुश करने के लिए उसने बात मान ली थी।

परंतु - राम की आंखों के सानने अब भी वही चेहरा घूम रहा था जिसने नेताजी को गोली मारी थी। हत्यारे का चेहरा-भयानक। उसे लग रहा था कि हत्यारा अब भी रिवॉल्वर लिए उसके पीछे दौड़ रहा है। राम की आंखों के सामने बापू की मूर्ति घूम गई। वह मूर्ति जो ‘लोहिया क्लब के मैदान’ में खड़ी है। सफेद संगमरमर की मूर्ति। हाथ में लाठी। शरीर पर धोती, आंखों पर चश्मा। हाथ उठाकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे बापू।

हर रोज राम उस मूर्ति को साफ किया करता था।

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