श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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दिनेश ने साहस ने जरा-सी करवट ली। उसने निशा का चेहरा अपनी ओर मोड़कर हाथों में भरकर कहा- निशा! एक बात मानोगी।
कहो!
मुझे नौकरी पर जाने दो।
वह तुम्हें निकाल चुका है। उसके समक्ष धिधियाना चाहते हो...।
नहीं ऐसी बात नहीं है निशा
फिर क्या बात है...?
जब उसने मुझसे त्यागपत्र माँ*गा था तो कहा था-अगर नौकरी पर वापिस आना चाहते हो तो...एक शर्त है...।
वह शर्त भी वैसी ही होगी, जैसी अब तक निभाते आये हो...! वही उसके पीछे-पीछे दुम हिलाते रहने की...।
नहीं निशा! मेरी बात तो सुनो...।
फिर क्या है...स्पष्ट क्यों नहीं कहते...।
निशा उस अंधेरे में और भी मजबूत दिखने लगी। पर कहीं दुविधा में फँसे होने का भंवर भी निशा के चेहरे पर घिर आया था।
दिनेश ने साहस छलागे भरने लगा...।
बॉस ने कहा था-अगर निशा माफी माँग ले...तो...अगले शब्द उसके गले में मरे हुये कबूतर से फड़फड़ा कर रह गये थे...।
दिनेश...निशा पूरे जोर से चिल्लाई और उठकर बैठ गई। रात का अंधेरा एक बार कंपकपा कर बच्चों के इर्द-गिर्द मँडराने लगा।
हवा सहमकर किसी कोने में जा दुबकी। चाँद की आँखे बादलों ने ढाप ली थी। उसके माथे पर उभरी स्वेद की किनकियाँ-उसकी बदहवासी का पंचम लहरा रही थी...। वह तिलमिला उठी थी।
उसे पहली बार लगा कि उसकी कहानी के सौ-सौ दंश दिनेश के बॉस को नहीं उसे ही पोर-पोर तक डरा गए हैं...।
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