श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
|
5 पाठकों को प्रिय 186 पाठक हैं |
दिनेश ने सोचा वह निशा को अपने बॉस की कहीं सारी बात बता दे। पर वह बार-बार हिम्मत हार जाता था। वह इस इंतजार में था कि कब किसी क्षण निशा कच्ची पड़े और वह झपटकर उस कच्चेपन को दबोच कर अपनी हार को जीत में बदल दे।
दिन बीतते जा रहे थे। वह कहीं भी अपने आपको त्यवस्थित नहीं कर पा रहा था। निशा के कई बार कहने पर भी उसने अभी नई नौकरी नहीं खोज का उपक्रम नहीं किया था। उसे डर था-अगर देर हो गई तो उसका बीस सारे डिपार्टमेंट में उसके निकाले जाने का ढिंढोरा पीट देगा। वह अपने विद्यार्थियों को क्या मुँह दिखायेगा! आस-पड़ोस, घर-परिवार-ससुराल सबकी नजरों में बौना बनकर रह जायेगा...। सारी जलालत को बार-बार सोचकर उसका मन कसैला हो जाता...।
काश! उसके पास इतना साहस होता जो वह निशा से कह सकता-मैं इस फजीहत में नहीं जी सकता। इतनी-सी बात क्या तुम मान नहीं सकती! पर बीस का मनहूस चेहरा सोचकर वह कहीं अंधेरे में डूब जाता।
इसी बीच वह एक दिन निशा के साथ ससुराल गया था। नौकरी छूट जाने की बात-पहली बार ससुर जी को बताई गई...। उनके चेहरे पर एक हिकारत-सी दौड़ गई। इससे पहले कि दिनेश कुछ बताता-निशा ने पिता के चेहरे को पढ़ लिया था। उसी समय एक तिता उपेक्षात्मक दृष्टि फेंकती उसे खींचकर घर ले आई थी। दिनेश अंदर ही अंदर निशा के लिए गर्व से भर उठा था। अपनी ही नजरों में वह एड़ियों से ऊँचा उठ गया था।
उस दिन पहली बार निशा के चेहरे पर जैसे किसी ने धुआँ पोत दिया हो। वह उदास और आहत थी, इतनी कि पहचान में नहीं आती थी। उसकी चुप्पी आहत कर देने वाली थी।
छत पर बेहद उमस थी। आकाश की आँखें टिमटिमा रही थीं। बच्चे सो गये थे। निशा करवट बदल कर लेटी थी। जाहिर था उन्मन है और जाग रही है।
|