श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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दिनेश के आसपास सहस्रों चीटियाँ रेगने लगी। निशा भी मनीश की इतनी बड़ी बात से सकते में आ गई। कब मनीश ने ये सारी बातें जान ली-वह अनुमान भी नहीं कर सकी। मनीश को झिड़ककर बोली-कौन कहता है-नौकरी छूट गई...।
मनीश तमक कर बोला-हमें बनाओं मत मम्मी सभी बच्चे कह रहे थे कि पापा की नौकरी छूट गई और छूटी भी क्यों, वह भी हमें मालूम है...।
क्या मालूम है। निशा का संयम ढेर हुआ जाता था। आज पहली बार उसका अहम इस नन्ही दीवार से टकराकर चूर-चूर हो गया था। वह आपे से बाहर होकर जैसे ही मनीश की ओर लपकी-वह चिल्लाया- तुमने जो कहानी लिखी है न-उसकी वजह से...।
निशा के पाँवों में जैसे किसी ने कसकर सांकले बाँध दी हो। वह वहीं की वहीं बुत्त बनकर खड़ी रही और मनीश चिढ़ाने की सी मुद्रा बनाकर भाग गया। ऋतु यह सब कौतुक से देखती रही और फिर से मनीश के पीछे-पीछे भाग गई...।
निशा और दिनेश-मेज के दो किनारों पर ध्वस्त निरीह से शून्य में ताक रहे थे। बीच का खारा समुद्र दोनो के वजूद को लील गया था। मेज पर पड़ा अधूरा नाश्ता एक विद्रूप हँसी-हँस रहा था। लहरों की क्रूरता ने दोनों को कहीं बहुत दूर मझधार में फेंक दिया था...।
निशा इस अपमान से दिनेश को अपमानित नहीं होने देना चाहती थी। वह अपमान के इस शिकारी पंजे को अपने हाथों में पकड़ कर निहत्था कर देना चाहती थी। एक नाटकीयता-सी ओढ़े वह सब कुछ पी गई। बात को हल्का-फुल्का बनाने के लिए मुस्काकर उसने दिनेश की हथेली को छुआ-अपना मनीश कितना चुस्त हो गया है। विश्वास ही नहीं होता-कि वह इतना बड़ा हो गया है दिनेश की आँखों की तरेर ने उसे इस वाक्य सहित हवाहत कर दिया। दिनेश देख रहा था, निशा उसे प्यादे की नियति नहीं, इस शतरंज में जीतने वाले बादशाह की तरह देखना चाहती है। सारे पांसे वह खुद ही खेल रही है।
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