श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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दिनेश इस सारे अयाम-पर कटकर फांक-फांक हो गया। किसी ने जैसे दरौती पर गाजर-मूली रखकर सटाक-सटाक कर उसके टुकड़े कर डाले हो...। निशा के समक्ष वह हर बार इसी तरह परास्त हो जाता हैं आज उसे सचमुच लगने लगा कि इस साले बॉस के कारण उसका पौरुष दाग-दाग हो गया है-टुच्चेपन की हद तक। वह अंदर ही अंदर उससे टकराने की शक्ति बटोरने लगे।
निशा ने उसे सोच में डूबे देखा तो हिलोरा दिया-सोचते क्या हो। सब ठीक हो जायेगा। घर में प्यार और सोहार्द हो तो रूखा-सूखा भी तरातर लगता है। कल से कुछ कटोतियाँ शुरू कर देगें तो सब चल जायेगा। निशा कहीं भी कमजोर नहीं आई तो दिनेश इस्तीफे के बारें में मन पक्का करने लगा...।
इसी ऊहा-पोहा में कुछ दिन बीते...। दिनेश लस्त-पस्त-सा अपनी फाइलें टटोलता रहता और निशा नौकरी पर चली जाती...।
एक दिन मेज पर मनीश और ऋतु मक्खन के लिए जिद्द कर रहे थे। कोई और न होता तो निशा झट से नौकर को दौड़ाती पर आज वह चुप रही। वह जानबूझ कर दिनेश की ओर नहीं, बच्चों की ओर ताकती रही।
दोनों की इस न चुप होने वाली जिद्द को देखते बोली-मनीश बेटे-तू तो बड़ा है। एक दिन मक्खन नहीं खायेगा तो क्या हो जायेगा। मनीश दस बरस का होने जा रहा था। बचपन से ही थोड़ा संयित और गंभीर प्रकृति का बच्चा था। वह माँ की ओर भरी-भरी आँखों से देखने लगा। उसकी आँखों की तरेर में प्रश्नों के पहाड़ थे। वह पापा की ओर देखकर बोला-पापा की नौकरी छूट गई है इसलिए न।
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