श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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यह विस्फोट इतना अप्रत्याशित था कि निशा ने हाथ का प्याला छलछला गया। निशा की सारी कायनात डोल उठी। इतना भयावह और इतना जल्दी यह सब होगा उसने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। वह अंदर ही अंदर अपना साहस बटोरने की कोशिश में-यकायक पूछ बैठी...।
कारण...?
तुम्हारी कहानी। दिनेश ने होठ काटकर कहा। दिनेश के न चाहते हुए भी उसके दाँत पिस गये थे। निशा दहल गई थी।
निशा पलभर में ही साहस बटोरकर और आवाज में दंभ भरकर-ठहासा मारकर हँस पड़ी- तो लग गए तुम्हारे बॉस को हमारी कहानी के दंश। मजा आ गया...पर अंदर से निशा किरच-किरच झर रही थी। वह दिनेश के सामने-एक मजबूत चेहरा ओढ़े उछल रही थी...।
तुम्हें बॉस ने कुछ अन्यथा तो नहीं कहा न! वह गंभीर थी...।
दिनेश निशा के इस हौसले से कटकर रह गया। वह अपने आप को निशा के समक्ष बहुत नँगा और नपुंसक महसूस करने लगा...। वह आज तक समझ नहीं पाया था कि इतनी बुलन्दी और शेरनी की-सी हिम्मत और यह पहाड़ जैसा स्वाभिमानी अहम् इस औरत में कहाँ से आता हैं। क्या परिवार की ऊँच्चाइयाँ यह सब तुम्हें बपौती में देती है, या तुम स्वयं बटोरते हो अपनी सफलताओं एवं असफलताओं के बीच...। वह अपने आप से यह प्रश्न बार-बार पूछता रहा है।
दिनेश ने 'न' में सिर हिलाया। बॉस की कही हुई सारी बातें गले में ही घुटक गया।
अरे यार! फिक्र मत करो। कुछ दिन खूब ऐश करेंगे और फिर करेंगे-तलाश किसी ढंग की नौकरी की। हमारे मियां जितना सीधा और अपने विषय में दक्ष हीरा तुम्हारे बॉस को दूसरा न मिलेगा-यह याद रखो। कर्मठ और योग्य व्यक्ति की जरूरत हर जगह होती है।
अब ऐसी नौकरी ढूँढेंगे, जिसमें हमारा मियां आदमी होकर अपने पूरे पौरुष के साथ जी सकेगा। दिनेश कहीं अपने आप में हिजड़ा बनकर रह गया था। दूसरा ठहाका लगाकर निशा ने जैसे सारे धूँए को बादलों की ओट पी लिया था...।
उसके बाद उसने चटकारे ले ले कर चाय पी। बच्चों से बतियाई। दिनेश की प्लेट में गर्म-गर्म पकौड़े एक और-एक और करके खिसकाती रही और दिनेश की उन्हे निगलने की विवशता भी देखती रही...।
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