श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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इतने में स्कूटर की आवाज आई। बालकनी से झांका तो दिनेश ही था। पस्त और निरस्त। वह धीमी चाल से सीढ़ियों की ओर बढ़ रहा था। तब तक बच्चों ने भी आवाज सुन ली थी। दरवाजे की थपक से पापा-पापा चिल्लाते हर दिन की तरह दरवाजे की ओर लपके।
निशा ने दरवाजा खोला-एक हारा हुआ खिलाड़ी-सा दिनेश सामने खड़ा था। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था निशा अप्रतभ और भौचक। उसे समझते देर नहीं लगी-कि जो कुछ अनहोना-हो सकता था हुआ है।
क्या बात है-निशा ने भयभीत होकर पूछा...। दिनेश ने केवल एक भरी सी नजर से निशा को देखा-कुछ कठोर आँखों से जैसे घूरा भी...। बच्चों की किलकारियाँ उसे अपदस्त कर रही थीं। उनकी मनुहार को जैसे वह परे धकेल रहा था।
बच्चे सहम कर पीछे हट गए और अपने अधूरे खेलों में फिर से मस्त हो गए।
निशा ने दिनेश की आँखों में झाँककर कुछ ढूँढने की कोशिश की। उन आँखों में कहीं एक मरे हुये साँप के केचुल-सी असहायता और भय भरा हुआ था। निशा दहल-सी गई। वह बड़ी संजीदगी और सर्तकता से कारण की टोह रही थी। नौकर को भी चुपके से उसने चाय-नाश्ता तैयार करने के लिए अधिक सावधानी और रोज से अलग चटाकेदार व्यंजनों के आदेश दे दिए...। अपेक्षा कर रही थी कि दिनेश किसी भी वाक्य से उस मौन को तोड़े तो वह उसे संभालने का लंगर डाले...।
दिनेश ने जैसे किसी खोल में अपने-आप को बंद कर लिया था। हार-कर निशा ने ही पहल की-
उदास लगते हो! सब ठीक तो है...।
दिनेश पस्त और निरासत तो था ही। सारे दिन की जलालत के बाद कहीं भरा भी बैठा था-शायद इंतजार में था कि निशा कुछ कहे और वह उसे फटकार भरा जबाव दे...।
दिनेश ने झटके से बिना किसी लाग-लपेट के कह दिया-कुछ भी ठीक नहीं हैं। नौकरी छूट गई।
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