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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 22


मेरे अपरूप!
तुम्हारा प्रथम स्पर्श मुझे स्पन्दित भी कर रहा है और हिल्लोलित भी...। ऐसा लग रहा है कि वह तुम्हारे हाथ का स्पर्श नहीं किसी मूर्ति का स्वरूप स्पर्श था-जिसने मुझे कहीं आज ऊँचा कर दिया है। वह भाव-विभोर-विहलता की स्थिति अभी भी मुझ पर आसक्त है और तुम्हे सीढ़ियों से उतरते-पीछे से देख रही है।

ये बेमान पत्र जो तुम्हें रोज लिखती हूँ, मेरे जीवन का आधार बन गये है...संदेश तो मेघमालाओं का भी मीठा होता न। जो नितांत निःशब्द एवं मूक होता है फिर भी उन में क्या कुछ होता है यह पक्ष और दक्षिणी की भाषा ही बतला सकती है।

यह पत्र लेखन निःसंगति में तुम्हारे मिलन का सुख देते है। व्यथा से उबारते है। मेरी पीड़ा के महरम बन जाते है। ये एक नये विश्वास से मुझे भर देते है। नहीं मालूम इस नये विश्वास की परिभाषा क्या है और कैसी भावना से मुझे ये भरते है-इनकी कोई जवाब देह मेरे पास नहीं है। किसी की चितवन की एक किरण कैसे दूसरे को झकझोर कर रख देती है इसका उत्तर क्या कभी- किसी को मिल पाया है। किसी का क्षणों में विश्वास पा जाना या खो जाने-का लेखा-लेखा है किसी के पास...! आजतक इस की थाह नहीं मिली किसी को। इस सब का कोई मापदंड मेरे पास भी नहीं है प्राण! लेकिन मुझे इतना मालूम है कि इन पत्रो में-मेरा जीवन एक दर्शन बन जाता है। चाहे मेरी अपनी सीमाएं है-सामाजिक दायरों की असीम धुरियाँ है-अनदेखी जंजीर है...यहीं नहीं मेरे आसपास की लगी हुई मेरी चौखट है-लेकिन ये मन की उड़ाने बदनाम हवा की तरह उन सब को पारकर के-तुम्हारे पास चली आती हैं। इस निःसंगत में ये पत्र कैसे मेरी दवा बन गए है।

कभी-कभी एक दिवास्वप्न की तरह देखती हूँ कि तुम स्वयं मेरी देहरी पर दस्तक दे रहे हो...।

नहीं! मैं यह दस्तक न सुन सकूँगी-प्राण...। मैं तुम्हारे मोह में विवश होकर भी अवश हूँ...। कर्ण-कुहर तुम्हारी थाप को सुनने को व्याकुल होकर भी चुप रहेंगे...। मेरी श्रवणन्द्रेयियाँ को, इस झनझनाहट को ग्रहण नहीं करना है। मेरी यही परिभाषा रहेगी...।

यही मेरी कायरता है या विवेक की कभी-या कह सकते हो कहीं भावनाओं का द्रारिद्रय...नहीं जानती...किंतु इतना जरुर जानती हूँ कि एक सामाजिक, लौकिक, पारिवारिक जकड़न है जो बिछियों-सी मेरे पाँव की एक-एक अँगुली में लिपटी है। जिन्हें में चाहकर भी ढीला न कर पाऊँगी और करना भी नहीं चाहती। क्या मन के किसी कोने में बरसात करने के लिये सारे शरीर का भीगना जरूरी है। नहीं न।

मैं शरीर के भीगे-बिना भी सरोबार रह सकती हूँ...और यही मेरी निर्यात बनकर मेरे साथ रहेगी...।
टूटे हुये नदी के बाँध-तो केवल प्रलय ही ला सकते है-न!

- बस एक अवश...

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