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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 23


मेरी कल्पना...
जान! तुम्हारे चितवन से अधिक तुम्हारी पीड़ा ने मुझे पूर्णता दी है। तुम्हारी दी हुई पीड़ा-मेरे जीवन का दर्शन बनती जा रही है। इस दर्शन से मैं संसार की अतल-गहराईयों को देखने में समर्थ हो रहीं हूँ। मुझे जैसे दिव्य दृष्टि मिल रही है-और मैं संसार में व्याप्त-क्षणभंगुरता को और भी सच्चाई से पहचानने लगी हूँ...। मिलन से अधिक विरह माँजता हैं। प्राप्ति से अप्राप्ति की प्राप्ति ही अधिक होती है। मेरी...तुम्हारी प्रति मूक-भावना मुझे माँझ रही है। हम जो पा लेते हैं उसे खोना नहीं चाहते और अधिक पाना चाहते है यही निर्यात हो जाती है अन्ततः। किंतु मेरी दृष्टि में अतृप्ति की जगह अब तृप्ति ले ली है। अभाव के स्थान पर एक महाभाव आ गया है। यह मेरा कैसा भाव है जो मूक ही बना रहना चाहता है...यह भाव तो-यह भी नहीं चाहता कि तुम्हारी आँखों में कुछ उभरा हुआ देखे। स्त्री संयम का नाम है और पुरुष असंयम का पर्यायवाची। कभी भी तुम्हारा पर्यायवाची रूप-तुम्हारी आँखों में न देख सकूँगी। मुझे से स्वयं ही सहन न होगा। पुरुष की अतृप्ति मैंने बहुत देखी है। स्त्री को सीढ़ी बना कर ऊपर चढ़ते और फिर गिरते बहुत देखा है। ऊँची खिड़कियाँ तोड़ते और फिर चढ़ने वाली सीढ़ी को ही रौधते...इस पुरुष का रूप...मैं तुम में नहीं देखना चाहती। तुम अलग हो-सबसे-अलग ही बने रहो। अपने देश के प्रति उस दिन तुम्हारी अनन्य आस्था देखकर, मेरे मन के किसी कोने में तुम और भी ऊँचे उठ गये हो। यो मैं एंटी मैन कहलाती हूँ जिस पुरुष ने युग-युगों तक नारी को प्रताड़ित किया है और उस से सुख ही सुख प्राप्त करने की जबर मर्दाना कोशिश की है उससे कभी मेरा समझौता नहीं हो सकता। इसलिये मैं तुम्हारे उस आदमी को परिधि मैं खड़ा नहीं करना चाहती। तुम इसी तरह मेरे लिये अज्ञेय बने रहो। इसी तरह तुम्हारी भाषा के अर्थ मुझ तक कभी न खुले। इसी तरह तुम मेरे मन की भाषा कभी समझ न पायो...। कभी-कभी जब तुम्हारी भाषा के अर्थ मुझ तक नहीं खुलते तो लगता है दो परकटे पंछी फड़फड़ा रहे है। किंतु यह फड़फड़ाहट तो जीवन का स्पन्दन है प्राण...। प्राप्ति और ज्ञान पर तो मुक्ति हो जाती है। सीढ़ियाँ चढ़ने का सुख और संघर्ष मंजिल पर पहुँचने से कहीं अधिक हैं। यह संघर्ष ही मनुष्य की प्राण-शक्ति है, जिस दिन यह समाप्त हो जायेगी-मनुष्य अपना लक्ष्य खो बैठेगा...।

मुक्ति तो एक पड़ाव है, ठहराव या थम जाना। यह अनवरता जो शाश्वत काल से चली आ रही है, तिरोहित न हो जायेगी। क्या हम कभी चाहेगे कि यह शाश्वत-अनवरता रूक जाये...। नहीं भीड़ में कंधे-छिलते है-तभी घर पहुँचकर राहत की साँस की अपेक्षा की जाती हैं। घर पहुँचने को आस बंधे रहना ही तो जीवन है। मुझे यह जीवन जीना है-इसलिये-एक आशा में-एक अपेक्षा में...।

- एक अप्राप्ति...।

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