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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 27


मेरे विश्वास,

विश्वास और दर्द में कोन बड़ा है, जानते हो हमारे एक कवि ने इस की बड़ी सुंदर व्याख्या की है। पर कौन बड़ा है, कोन छोटा-यह अपनी-अपनी परिधि और अनुभव की बात है। अपनी-अपनी परिधि में दोनों के अर्थ घटते-बढ़ते रहते है। इतना जानती हूँ कि विश्वास हृदय को मुक्ति देता है और दर्द भी...फिर भी विश्वास बड़ा है-क्योंकि संसार की सत्ता, मनु की सारी संस्कृति इसी पर टिकी है। विश्वास पाना-जीवन पाना है-खोना मृत्यु है। जब मनुष्य के विश्वास मर जाते है, आस्था खत्म हो जाती है, तब वह दृष्टिविहीन-सा होकर भवसागर में त्राहिमान-त्राहिमान कहकर बिलखने लगता है और दर्द का तो अस्तित्व ही विश्वास से है। हम सब एक विश्वास, एक आस्था पर टिके है-इसीलिये उस विश्वास को सम्बल मानकर भवसागर की तूफानी लहरों में भी चलते रहते हैं अन्यथा सारा विश्व निष्प्राण हैं। निसत्व है। विज्ञान ने जब आस्थाओं पर चोट की तो पहले-पहल मानवता कराह उठी लेकिन अन्तत! विज्ञान को भी अपने और आस्था के बीच एक समझौता करना पड़ा। प्रश्नचिन्ह को प्रश्नचिन्ह ही रहने दिया उसने...। सारी सृष्टि की आधार-शिला विश्वास है और यही विश्वास उसे अमरत्व प्रदान करता है।

तुम्हारी आँखें मुझे इसी विश्वास से भर देती है प्राण। पर साथ ही दे जाती है मुझे एक न मर सकने वाला दर्द। एक पीड़ा-जनित संसार। बिलखने का सुख भी-सुख ही है। पावन आँसुओं से हृदय का सारा मालिन्य धुल जाता है और चहुँ ओर निछवता व्याप्त हो जाती है। ईषा ओर द्वेष मिट जाता है। तुम्हारे विश्वास में इतना दर्द दिया है कि सारे संसार का दर्द मेरे हृदय में उतर आता है। अब मैं दर्द को उसकी संपूर्णता में समझ सकती हूँ...। सिसकते फूल और कलियों की सिसक मुझे सुनाई देने लगी है। उनकी मूक-भाषा मेरी भाषा बनने लगी है। प्रियतम! अगर तुम मुझे यह वेदना दृष्टि न देते तो जग का एक बड़ा रहस्य आँखों से ओझल ही रह जाता। संसार को बिना-जाने प्राणों की इति-श्री हो जाती। धन्य है वे प्रियतम जो अपनी निष्ठुरता में अपनी प्रियतमाओं को ये दिव्य-वेदना दृष्टि दे सके। आँसू और व्यथा के मूल्य को उनके आँचल में भर सके।


मैं धन्य हूँ कि मुझे तुम जैसा अपरूप सौन्दर्य मिला। अपरूप द्विव्य दृष्टि मिली। जिससे मैं स्वयं को पहचानने लगी। देखने लगी कि कैसे प्रेम का यह छोटा-सा शब्द सीमा से असीम हो जाता है। सारे संसार का दुःख सिमट कर हृदय में भर जाता है। आज सारी मानवता का दुःख मुझे विचलित करने लगा है। भर आने लगी है मेरी आँखे और मेरा कँठ-किसी भी वेदना-विगलित उदास चेहरे को देखकर मैं भयभीत हो जाती हूँ-विकलित हो जाती हूँ।

दर्द माँजता है, सँवारता है, बाँधता है...। यह ईश्वरीय वरदान है कि आदमी को धरातल से उठ कर...आकाश की ऊँचाई पर ले जाता है। नरक से स्वर्ग जाना-शायद यही होगा कि आदमी जैसे सुबह को पावन किरणों में नहा उठता है।

आज मेरे इस भरे कँठ का नमन लो प्राण! तुम्ही वह असीम हो जिसने मुझे मेरी सीमाओं को असीम करना सिखाया है। अन्न को अनन्त में परिवर्तित किया

- तुम्हें मेरा वन्दन

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