श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 28
मेरे असीम,
कुछ न कुछ मेरी इस मानसिकता को मथता रहता है-रोज के रोज-हर पल-हर क्षण-। आज सोचती हूँ सुख की कोई परिभाषा गढ़ लूँ...सुख क्या है। इस अतीन्द्रिय भाव को हम बाहरी संसार से जोड़ कर चलते हैं...। अगर इसे केवल भौतिक उपलब्धियाँ का नाम ही दे दे तो क्या हर्ज है। सारी सृष्टि इसी को तो सुख कहती है। सारी सृष्टि इसी सुख की भटकन में भटक रही है। इसकी प्राप्ति ही चरम-सुख हो जाती है उनके लिये...। पर क्या सभी को ये सुख उतनी ही गहनता से व्यापते हैं-नहीं प्राण-नहीं। अगर यही सुख व्यापते होते तो ऊँचे महलों में रहने वालों, बड़ी-बड़ी गाड़ियों वाले-सब से ज्यादा सुखी होते। किंतु मैंने तो सुना है जितने ऊँचे महल होते हैं उतने ही बौने उन के सुख होते हैं। हर महल में दरारें है। ये दरारें अलग-अलग रास्तों से चलकर आती है-और अलग-अलग दिशाओं में होती हुई महलों को खोखला करती रहती है। फिर एक दिन ऐसा आता है कि ये महलों को दाह देती है-वे ऊँची, मीनारे, कंगूरे वाले महल एक दिन इन्हीं दरारों में धाराशाही होकर मिट्टी हो जाते हैं। पता नहीं क्यों, यह सब तुम्हें कहने की चाह होती रहती है। महलों के घटाटोप अंधेरे तुम पर आकर खुल जाते हैं। फिर यह भी लगता है ये शब्द रोज बिन पढ़े भी तुम तक पहुँचते रहते है। यही नहीं-कहीं-न-कहीं-मुझे हर रोज उन का प्रत्युत्तर भी मिलता रहता है। मानस की यह भाषा अगर कोई पढ़ ले तो क्या वही सब से बड़ा सुख नहीं है। नहीं तो, मन तो वह अंधेरा किला है प्राण कि एक साथ सोये हुये दो प्राणी भी अपने दुर्गो में एक दूसरे से मीलों दूर रहते है। एक अव्यक्त दूरी-उन्हें अपने किनारों पर धकेले रखती है-जिसे छू कर भी कम नहीं किया जा सकता। समझ रहे हो न मेरी बात! लगता है तुम मेरे सामने बैठे हो और मैं तुम्हारे अंर्तमन में झांककर, तुम्हारी आँखों में देखकर सबकुछ कह रहीं हूँ...। तुम्हारी आँखों में कुछ प्रश्न उभर आते है-जिनके अर्थ में तुम्हें नहीं दे सकती। अर्थ तो उत्तर ही होगा न। मैं इस भय से बस भागने लगती हूँ...स्वयं से तुम से और अपने वातावरण से। सभी प्रश्नों के उत्तर कभी होते हैं क्या। इसलिये सुख-धर्म निरपेक्ष या व्यक्ति निरपेक्ष रहकर ही सुख हो-ऐसा अनिवार्य नहीं है। वह व्यक्ति-निष्ठ है। वह परिवेश-निष्ठ है। इसलिये सुख की असीमता को हम अर्थों की दीवारों में नहीं बाँध सकते...।
मैं हार गई हूँ-मुझसे शायद सुख की परिभाषा नहीं बन पायेगी। मैं तो अपनी ही मीमांसा नहीं कर पाती-सुख तो बहुत परे की चीज है।
सत्य और सुख का चोली-दामन का साथ हो सकता है। पर उस सुख को शाश्वत सुख कह सकते है-दुनियाई सुख नहीं। सुख तो हर-क्षण हाथ से फिसल-फिसल जाता है-और अपने वक्त को छूने भी नहीं देता। छूने से शायद उस की महता-अपने आप में और व्यक्ति-निष्ठ होने में घर जायेगी। ऐसी ही होती है ये परलौकिक धारणायें-कि आप को उठा-पटक कर पटकी देती रहती है और आप बौरे-बौरे उस की तह तक पहुँचने को अपना जश्न बना लेते हो-और उसी कशमकश को हथेलियों में लिये-अपनी ऊर्जा की परीक्षा लेते रहते है।
यह तो ऐसे ही चलेगा। अन्ततः जो रहस्य है-वह रहस्य ही रहेगा। इसलिये जिज्ञासू-मन के घोड़े दौड़ाने का अवसर क्यों जाने दे...। है न!
- एक अनिर्णात सत्य
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