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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 29


मेरे मानस के हंस,
न जाने कब एक बिंब मेरे मानस में उभरा और उसने तुम्हारा रूप धारण कर लिया। कभी-कभी तो लगता है कि ये बिंब कहीं वास्तविकता भी है या नहीं। मेरी कल्पना के तुम केवल कहीं आधार ही तो नहीं हो। कहीं मेरी अतनिहित अतृप्तियाँ का एक प्रतीक ही तो नहीं हो तुम! मैंने अपने अधरों में राह-तलाशने की एक मशाल ही बनाया हो-शायद तुम्हें! हाड़-मांस के होते हुये भी तुम मेरे लिये नितांत एक कल्पना हो..। प्रकृति के अपरिमिच सौंदर्य को बिना छुये भी जैसे उस की सत्यता नकारी नहीं जा सकती-उसी तरह अपने भीतर-तुम्हारे अस्तित्व को भी मैं नकार नहीं पाती। जानते हुये भी कि ये पत्र, ये मेरी कल्पनाओं से भरे-लंबे-लंबे पीड़ा-भरे दस्तावेज-तुम तक कभी नहीं पहुँचेगे...फिर भी मुझे इनको रोज-रोज लिखकर किस भावना से निष्प्रति मिलती है-इस का उत्तर मेरे पास नहीं है-और मुझ से यह उत्तर कभी माँगना भी मत!

हम रोज धूप-बत्ती जलाते हैं, बड़े-बड़े दुर्गम स्थलों पर लंबी यात्राएँ करके-मंदिरों की घंटियाँ बजाकर, दुंदभियाँ बजाकर आरती-उतारते हैं-अपने मन में बसी मूरत को मंदिर में सजाकर पूजते हैं। उस पर दुनिया भर के कीमती वस्त्र और गहने लाद-कर मन के सौंदर्य को मूर्त रूप देते है। यह सब क्या है प्राण! एक अनुबूझ तृप्ति ही न-जो एक श्रद्धालू-भक्त को मिलती है। कभी भगवान को छुआ नहीं, देखा नहीं-फिर भी एक अटल-विश्वास, एक अखंड आस्था लिये सारा-संसार-उस मोहिनी धुरि पर, उसकी अँगुलि पकड़े चला जा रहा है, झूम रहा है-गोल-गोल...चक्कर काट रहा है...है न! यही विश्वास है प्राण और यही मेरी आस्था भी...मन के मंदिर में तुम्हें कैसे भी रखू...यह मेरी इच्छा है पर तुम मेरे सम्बल हो, मेरी दृढ़ता हो, जो सदैव मेरे साथ-साथ चलती है कभी लाठी बनकर, कभी अँगुलि बन कर। प्रभु ने मन को सागर से भी अनबूझ गहराई शायद इसलिये दी है कि कहीं कैसे भी किसी के साथ रहकर-भी वह अपने मन की गहनता में केवल मूर्ति बना हुआ है।


हम अदृश्य को अपना संबल-सहारा बना सकते है। बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी उत्तर के, बिना किसी-खूल हाथ के स्पर्श के-तो साक्षात को असाक्षात बनाकर क्यों नहीं मान सकते और मन ही मन उस संबल से बंधे रह सकते। इस संबल के भ्रम से किन तड़फती-उमगती लहरों को किनारा मिलता है-वे किनारें क्या जाने! उनका किनारों को छू लेना ही क्या उन की मुक्ति नहीं है।

जब सबकुछ रहस्य है, माया है, भुलावा है, छल है, तो-यह भी सही प्राण मैं तो बस इतना जानती हूँ कि तुम मेरा ठहराव हो, बचाव हो...अन्यथा शायद में भी किसी पक्ष के उजड़े हुये घोंसले-सी कहीं बिखरी-पड़ा होती...।

मेरे मंदिर की श्रर्त बने रहो तुम

- तुम्हारी...

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