श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 30
मेरे बिंब...
कभी-कभी अकेले में तुमसे बतियाने को इतना मन करता है कि उम्र बीत जाए, पर बतियाना खत्म न हो। यों भी उम्र बीत जाती है-आदमी की इतिश्री हो जाती है-पर उस की कहानी खत्म नहीं होती। यहाँ तक कि उसकी कहानी-उसके मरने के बात दादी-नानी के किस्सों में सरक जाती है-चिरन्नता के लिये...।
जीवन भी कैसी अजीब चीज है। कैसी-कैसी अजीब बातें होती है दुनियाँ में-मैंने अभी-अभी पहचाना कि आदमी स्वयं कभी नहीं मरता-बल्कि मार दिया जाता है-या उसे उस स्थिति तक धकेल दिया जाता है-जबकि यह कहकर छुटकारा पा लिया जाता है कि ऐसी स्थितियों को पैदा करना-आदमी के हाथ में नहीं, ऊपर वाले के हाथ में होता है। फिर भी आदमी मरकर भी स्वयं नहीं मरता, मारने वाले का अहंकार मरता है। मारने वाले का स्वयं मरता है...उसी तरह मेरे मरने से मैं नहीं मरूँगा-मेरे सामने वाले का अहम मरेगा-उस का बड़प्पन मरेगा और हो सकता है उसका सारा अस्तित्व ही मर जाए। सब जानते हुये भी हम एक दूसरे को मारने की झोंक में लगे हुये है। कहीं आदमी के अस्तित्व को, कहीं उसकी मर्यादा को या कहीं उस के स्वत्व को ही-तो कहीं उसकी योग्यताओं को...फिर भी मरते हम हीं है, वह नहीं मरता-जिसे हम मारते हैं-कभी पहचाना है इस सत्य को किसी ने...। मरने वाले का कर्म तो उसे निर्वाण देता है-लेकिन मारने वाले की आत्मा उसे जीते जी मार डालती है। मरकर-मर जाना जीते जी मरने से कहीं बेहत्तर है। जानते हो-जीते जी मरना कैसा होता है-जैसे अपनी ही लाश को अपने कंधों पर ढो-ढो कर जीना और उसकी ताड़ना-लताड़ना सुन-सुन कर एक-एक पल काटना। कितना जानलेवा होता है यह सब...लेकिन जब तक हम किसी को मार नहीं लेते, तब तक उस दारुण पीड़ा का आभास नहीं होता-क्योंकि तब तक हम एक विजयी भाव में विजड़ित होकर-अपने महाकर्म में ही जुटे रहते है। कभी-कभी इसी लाघव में उसका उद्धार भी हो जाता है। मारने का देश-पश्चाताप की अग्नि बनकर उसे जला देता और एक कँचन सरीखी आत्मा चमक उठती है...पर ऐसे कितनी होती है-आत्माएँ...।
अपने कंधे पर सवार-उस लाश की प्रताड़ना कभी सुनी है आपने-कभी नहीं-हम तो सदैव उसकी उस चीखती आवाज पर-हाथ से कसकर पट्टियाँ बाँधे रहते है। मनुष्य मन की अज्ञानता-को कितनी भयावह यातना नहीं है यह-।
आज तो यह पत्र बहुत लंबा हो गया...पर कल तुम्हें सुनाऊँगी-एक ऐसी कहानी-एक बेटे की-जो कंधे पर ढोयी लाश-के साथ-जार-जार रोता है और चीखता है यह लाश-मैंने बनाई हैं यह गला-मैंने घोटा है-मुझे सजा दो...मुझे उल्टा टँगो...।
शेष फिर...
- तुम्हारी...
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