श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 31
प्राण...।
तुम्हें कहानी बताने का प्रण लिया था। कहानी ढूँढ कर ले आई हूँ-तुम्हें मैं सुनाना नहीं चाहती-जैसी लिखी हुई है, वही पढ़वाना चाहती हूँ...। वह लिखता है-
शुरू में होता था-फोन क्यों नहीं किया। सारा-दिन में प्रतीक्षा करती रही-इतना भी क्या काम...कि सारे दिन के बाद-एक बार तुम फोन नहीं कर सकते। मैं फोन का सिरा पकड़कर बैठी रहती हूँ और तुम्हें परवाह तक नहीं।
मैं चुपचाप सुनता था और सोचता था कि ऐसा क्यों कहा जा रहा है-पर यह भी मालूम था कि जो कहा जा रहा है, ठीक कहा जा रहा है। जिस की सारी दुनियाँ मेरे गिर्द घूमती हो-वह ऐसा ही कहेगा...। यों तो मेरी भी कोई अलग दुनियाँ नहीं थी, वही दुनियाँ थी मेरी भी। पर फिर भी मैं उस अलाव के ताप को उसी तरह महसूस नहीं कर सकता था।
पीढ़ियों का अंतराल, देश का अंतराल, संस्कृति और सभ्यता का अंतराल-बहुत सारे अनचाहे अन्तराल थे-जो उस सेतु तक पहुँचते-पहुँचते बिखर जाते थे। मैं माँ को समझाता नहीं-सफाईयाँ देता था और वह सच्ची सफाईयाँ होती थी-इतना थक गया कि सौफे पर बैठे-बैठे आँख लग गई। कम्पनी मीटिंग के बाद डिनर के लिये जाना पड़ा (तब सैल फोन नहीं होते थे) माँ कैसे-मैं बीच-मीटिंग से उठकर बाहर जाकर किसी बूथ से फोन करता-लोग मेरी और देखते और खिल्ली उड़ाते।
तुम समझों माँ-यहाँ बाहर की दुनियाँ बहुत अलग है। यहाँ माँ को फोन करो तो और-और तरह की बातें बनाते है-मॉमस बवाय, अभी एम्बेलीकल कोर्ड से अलग नहीं हुआ-अरे बाइस-चोबीस साल के हो गये, अभी तक माँ के कहे से उठते-बैठते हो। अरे! कोई गर्ल-फ्रैंड ढूँढो। ये सब बातें किसी तरह संस्कारों की छाननी में छान-छान कर माँ को कहता था। माँ पढ़ी-लिखी थी-समझती थी। तब हम दोनो के बीच की दूरी इस समझी-नासमझी की आँख मिचोली में आसानी से पटती रही थी। माँ मेरे लिये आदर्श थी। वह लौह-थम थी जिसे पकड़कर मैं खड़ा रह सकता था उम्रभर। माँ वह किनारा थी-जहाँ मैं कहीं से भी लटककर तैरकर पहुँच सकता था और वह किनारा ही मेरी मंजिल हो जाती थी। जिसे के पास लंगर-डालने के लिये ऐसे किनारे हो-उसे दुनियाँ से और क्या चाहिए-मैं भी और कुछ भी नहीं चाहता था...।
पर न जाने कब धीरे-धीरे अलग रहते-दूरियों का चेहरा बदलता गया। मैं अपने छोटे से अपार्टमेंट में बहुत व्यस्त रहने लगा। काम के बाद सप्ताह में तीन-दिन क्लासें लेने लगा। माँ को नहीं बताया। जब माँ रात को मेरी उपस्थिति में फोन करती-तो बहाने बना देता-कई तरह के बहाने-मैं डाक लेने नीचे गया था, सोफे पर किताब पढ़ते आँख लग गई-तरह-तरह के बहाने बनाता क्योंकि माँ को अगर क्लासों की बात-बताता तो बहुत कुछ सुनना पड़ता-सेहत बिगड़ जायेगी, ठीक से खाने को मिलता नहीं और क्लासे लेने चले है। काम पर क्या कम व्यस्त रहते हो, जो यह झमेला शुरू कर लिया। थोड़ी मौज-मस्ती करो। लोगों से मिलो-जुलो-आसपास दोस्ती बढ़ाओ ताकि समय पर तुम्हारे साथ कोई हो। पढ़ाई-पढ़ाई सारी उम्र पड़ी है-जब बीबी आ जायेगी-तब करना। कोई देखने वाला तो होगा...।
आज ये बातें कितनी अनोखी पर मीठी लगती है। माँ की मनुहार...बीवी आ जायेगी और ख्याल रखेगी। बाहर-मिलो-जुलो से मतलब-माँ का संकेत होता था-किसी को ढूँढो...।
आज सोचता हूँ कि दुनियाँ की धुरी दुनियाँ के रंग-ढंग धीरे-धीरे कैसे बदले जाते है। हमारे हर दिन के व्यवहार में, रिश्ते में, नाते में, बोलचाल में कैसे बदलाव आते-जाते है-मालूम ही नहीं पड़ता, उसी तरह जिस तरह शीशे में रोज चेहरा देखते-देखते धीरे-धीरे चमड़ी के नीचे-नोचती झुर्रियाँ दिखाई नहीं देती-पर एक दिन अपने पूरे वजूद के साथ खड़ी हो जाती है। और वहीं चेहरा, वही नाक-नक्श शनैः-शनैः घिरते और ढलते जाते हैं। एक दिन अपना ही चेहरा पहचान में नहीं आता। रोज देखने पर भी-आभास तक नहीं होता कि हम कहाँ ढल रहे हैं। कहाँ-कहाँ दिन पर दिन कोई हमारी चमड़ी-छील कर-उसका गूदा निकाल कर उसे नँगा कर रहा है। एक दिन वही चेहरा-मोहरा एक दिन उम्र के हवाले हो जाता है।
मुझे बचपन से एक जनून था। अखबार में जब मरने वालों की सूची होती थी तो कई लोग मरने वालों की जवानी की तस्वीरे देते और कई उनकी-आज की उम्र की। मैं उन चेहरों में एक और चेहरा ढूँढता रहता। उन चेहरों को देखकर धीरे-धीरे उनकी झुरियों को पकड़-उनके किसी अतीत में घुसकर अनुमान लगाता कि ये बचपन में या अपनी जवानी में कैसे दिखते होगे। इसी जनून के तहत में लाईब्रेरी में बैठकर बड़े-बड़े कलाकारों की, महान व्यक्तियों की तस्वीरों को बचपन से लेकर-अंत तक की तस्वीरों से उनका मिलान करता रहता। फिर एक अजीब-सी दहशत मन पर छा जाती-पर कभी यह नहीं लगता था कि कभी मेरे साथ भी ऐसा हो सकता है-या मेरी माँ के साथ ऐसा होगा।
मेरी माँ बचपन में कैसी रही होगी-देखना चाहता था। पर माँ के पास कोई पुरानी तस्वीर नहीं थी। मेरी माँ तो अभी तक बड़ी सलोनी, सलीकेदार दिखती थी। उनका चेहरा-बीच की उम्र का था। पर जवानी की लौ-अभी भी-चेहरे के कोनों से झाँकती थी। मैं देखता और सोचता था कि कई चेहरे उम्र के उस उत्तरायण तक पहुँचते-पहुँचते कितने भौड़े हो जाते है। पर कुछ आखिर तक बड़े सौजन्य पूर्ण रहते है। इसका संबंध आज समझ गया हूँ। चेहरे का सारा-झाम मन की पवित्रता से है। मन स्वच्छ-सुंदर हो तो चेहरा भी उतना ही स्वस्थ और सुंदर दिखता है।
मैं माँ के चेहरे की प्रशंसा नहीं कर रहा-पर मेरी माँ सुंदर थी। यों तों सभी को अपनी माँ सुंदर ही लगती है-। लगती होगी। पर मेरी माँ सुंदर ही नहीं-बहुत सुंदर थी। लंबा-थोड़ा भरा-भरा शरीर, गुदगुदा-सफेद लक, दक पर अंग्रेजी औरतों जैसा मुर्दा सफेद रंग नहीं-जानदार रंग-जिसमें हल्की प्रभात की सिंदूरी लाली छिटकी हुई थी-उभरे हुये क्षितिज पर सूरज के लावण्य जैसा...।
मैं भी कहाँ भटक गया। मैं कहना चाह रहा था कि वह अपने-आप नहीं मरी-मैंने मारा हैं उन्हें धीरे-धीरे तिल-तिल...। न जाने कैसे उम्र और दूर रहने से-संबंधों में एक दूरी, एक औपचारिकता और नकार आने लगता है। रोज की अपनी लगने वाली समस्यायें दूर कहीं बजती टंकार लगती है-जो बिना छुये निकल जाती है। वह उस देश की हवा थी-दूरी थी-वातावरण था जो मुझे भी अपनी चपेट में ले रहा था।
मेरे कमरे में दोस्त आये होते और माँ का फोन बजता तो मैं इसलिये नहीं उठाता कि दोस्त हँसेगे-ओह! माँ का फोन है...यह भाव उनके चेहरे पर व्यंग्य बनकर उभर आयेगा इसलिये फोन ही नहीं उठाता...।
पता नहीं क्यों घर से विरक्ति-सी हो गई थी। मेरी दृष्टि में दो व्यक्तियों के बीच या परिवार के बीच जब लकीरे खिंच जाती है तो वह जीवन और मृत्यु के बीच खिंची लकीर से कम नहीं होता। जीवन और मृत्यु के बीच भवसागर की एक ऐसी सूक्ष्म दीवार उठ खड़ी होती है कि दूसरी तरफ का सच भी दिखाई नहीं देता और फिर अलगाव के बीच जो घृणा की एक धुआँधार परत मंडराती है उससे कुछ भी न देखने की इच्छा उसे नितांत अपरिहार्य बना देती है। इसलिये दो जनों के बीच अलगाव-यानि तलाक को-एक रिश्ते की मौत से कम नहीं समझता। उस साये में पलकर, उस साये में हमेशा बचने की कोशिश करता रहा हूँ। उस साये से भागता रहा हूँ। सायास-उम्र भर-पर लगता है कि जितना दूर भागता रहा हूँ उतनी ही कहीं-और कई और अपनों से भी भागता रहा हूँ। उस साये से भागता रहा हूँ। हम अक्सर यह न हो जाये-ऐसा न हो जाये के तनाव से बचने के लिये-हरी-भरी छांव को भी लांघ जाते है। और न चाहते हुये भी-जेठ की दुपहरी की लू भरी घाम में अपने पैर जलाते चलते है।
अंदर की दीवारों पर चस्पा उन तस्वीरों पर जितनी भी घृणा की मिट्टी डालो-वह दबती या मिटती नहीं है।
बस इस ऊहापोह में, अपनी मूंढ़-मति के अधीन होकर मैं माँ से अपने-आप को खींचता रहा, दिन-प-दिन दूर होता गया। उन्हें अवश्य लगा होगा कि नाव के साथ-पतवार भी गई। मैं उनके खड़े होने की जमीन या मैंने तो वह-नींव ही खींच ली। इसलिये मैं जानता हूँ, मैं वह यौद्धा हूँ-जो युद्ध क्षेत्र में-शत्रुओं को मारने की एवज में उन मित्रों को भी मार डालता है जिससे उनका कोई हिसाब बाकी है। मैं माँ का हत्यारा हूँ। हम सब किसी-न-किसी के हत्यारे है। यही वह कहानी थी, जिसने मुझे अंदर तक मथा-
आज इतना ही-
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