श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
|
5 पाठकों को प्रिय 186 पाठक हैं |
पत्र - 32
मेरे प्रिय!
यह सब जो रोज मैं उल्टा-सीधा लिख जाती हूँ-जानते हो क्यो! क्योंकि तुम्हारे ऊब जाने का भय नहीं है। तुम्हारे नि:संग हो जाने की कल्पना भी नहीं है।
आज! यूहिं झील के किनारे पर आकर बैठ गई थी। दूर तक नीली-लहरों के अगम फैलाव को देखकर दृष्टि विहीन-सी हो रही थी और सोच रही थी-मनुष्य कैसे प्रकृति को भी बाँधने का प्रयास करता रहा है। इस अगम-फैलाव को भी उसने सीमित कर अपनी कृत्रिम सौन्दर्य-दृष्टि की छाप लगा दी है।
दूसरी ओर मजदूर लगे है-एक इमारत उठाने में। बुलन्दियों तक उठती जाती है रोज ये इमारते-पर क्या ये हमारी ऊँचाइयाँ है। या हम और भी रसातल में धंसते जा रहे है।
ये मजदूर-जो दिन रात किसी की इमारत को उठाने में लगे रहते हैं-क्या कभी उनके सिरों पर तुमने छत देखी है! हां शायद देखी होगी! जानते हो! कब आती है इन के सिरो पर छत। तुम्हारा जिज्ञासा में मुँह लटक गया है-शायद तुमने इनके सिरों पर छत कभी नहीं देखी-पर मैंने देखी है वह छत...जानते हो कब। जब वही छत इनके ऊपर आकर गिरती है। तब वही उनका आसमान बन जाता है। उस बड़ी छत के नीचे ये सदैव के लिये गहरी नींद सो जाते है। यह इस जग का नियम है प्राण! जिसे तुम अपना सर्वस्व देकर ऊपर-बुलन्दियाँ तक उठाते हो, वही बिल्कुल वही एक दिन अपने नीचे दबा लेता है। वह तुम्हारा अस्तित्व नकारता ही नहीं-तुम्हें टूक-टूक कर बिखरा देता हैं।
प्राण! तुमने कभी किसी मन-शरीर को एक साथ बिखरते और टूटते देखा है, उसकी एक-एक किरच को छूकर उसकी पीड़ा को महसूस किया है-शायद नहीं किया होगा-शायद देखा ही नहीं होगा...तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है जो तुम इतनी बारीकी से सब टटोल सके-किसी के अंदर। बाहर से वह दिखाई नहीं देता। मेरी ओर देखो-वह टूटना अंदर ही अंदर होता है-बाहर सबकुछ वैसा का वैसा ही रहता है। अंदर ही अंदर विश्वास चरमराते है, स्वत्व बुझता है, तुम्हारा अपना-आप तुम्हारे ही ऊपर भरभरा कर गिरता हैं तब सबकुछ टूटता-ही-टूटता है। उस एक क्षण में तुम्हारे लिये दुनियाँ का रूप ही बदल जाता है। तुम्हारा बना-बनाया सांचा ही चरमरा जाता है। तब एक दिन तुम अपनी ही बनाई हुई असूलों की दुनियाँ में जीने लगते हो। तुम्हारे उन सायास बनाये उसूलों के खोल ही तुम्हारा कवच बनते हैं। उसको भी तोड़ने के लिये दुनियाँ हर यत्न करती है। पर वह कवच बड़ा ईमानदार होता है जो अपने स्नेह-सौहार्द, ईमानदारी की सच्चाई से तुम्हारी रक्षा करता है...इस एवज में स्वयं कवच को क्या कुछ झेलना पड़ता है, वह कहानी अलग है...उसकी तह तक कोई नहीं जाता-कोई जाना नहीं चाहता। हमारे बाहरी मुखौटों के नीचे-कितनी लहुलूहान-दास्ताएँ होती है उसे कौन पढ़ता है जान...।
बस इतना ही...
एक टूटा कवच....
|