श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 33
मन-प्राण!
मैं और मेरा कवच क्या है-तुम नहीं जानते। नहीं चाहती कि तुम जानो भी। मैं किसी भी तरह तुम्हारे इस काल्पनिक संबल को दुनियाँ के सामने मूर्त नहीं होने देना चाहती। अपनी मर्यादा की सीमाओं को तोड़ना नहीं चाहती। मैं नारी होकर अगर अपनी सीमाएँ को तोड़ दूँगी, तो फिर दुनियाँ एक अतृप्तियाँ का एक महा-आगार बनकर रह जायेगी। पाप और पुण्य-सत्य और असत्य के बीच कभी कोई भेद नहीं कर पायेगा-प्राण! इसलिये मैं कहाँ टूटी हूँ-कब टूटी हूँ-क्यों टूटी हूँ-इसे मेरे इस रक्षा-कवच के भीतर ही रहने दो। इस कवच की लाश को मत छेड़ो। अच्छा है-तुम यह सब कभी पढ़ न सकोगे-नहीं तो-हो सकता है मेरे अभावों का कहा प्रभाव-तुम्हें भी अपनी लपेट में ले लेता। तब तो मेरे पास एक भी कंधा नहीं बचता-जिस पर मैं दबी हुई रावी की धारा बन-पाती-कभी पूछना भी मत...मेरे इस टूटन की कहानी। मेरा चेहरा, मेरा कवच जब कभी विश्वास-घात पर उतर आये-तुम उसकी ओर देखना भी मत और इस की कोई आवाज-सुनना भी मत। अनजाने मैं बिखरकर तुम्हारी बाहों को सम्बल मान बैठी-तो मेरे सारे जीवन की तपस्या भी, मेरा स्वत्व कभी स्वयं को लौटा न पाऊँगी।
मेरा स्वत्व ही तो है एक मेरी पूँजी। मेरी सारी पीड़ा की बची हुई धरोहर! बस इसे मैं कभी भी बिखरने नहीं दे सकती।
मेरा साथ दोगे न।
- एक आधारहीन स्वत्व
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