श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 34
मेरे प्रिय!
ओह! आज अचानक यह क्या हो गया। तुम्हारी प्यारी शहनाज मिली थी। उसे देखकर भी मैं कितनी तृप्त हो जाती हूँ...लगता है वह मेरे निकट तुम्हारी पूरक है। शहनाज आज ऐसी मनःस्थिति में थी कि वह स्वयं को संभाल नहीं पा रही थी। मैं कमजोर नहीं हूँ पर सभी अपनी किन्हीं कोमल-भावनाओं के समक्ष अचानक एक दिन इतने निरीह हो उठते हैं। यह स्थिति परक निरीहता ही हमारी दुर्बलता बन जाती है। मैं भी कहीं तो अवश होती हूँ न!
शहनाज की आँखों में बादल उतर आये थे-यह कहते-कहते कि शायद तुम्हें ईरान जाना ही पड़े। तुम्हारे पिता की चिट्ठी आई है कि पुलिस सारी छान-बीन कर रही हैं एक दिन आकर वे तुम्हारा सारा पता और पिछला रिकॉर्ड भी ले गए है। तुम्हारे पायलेट होने का कच्चा चिट्टा जैसे ही खुलेगा-वे तुम्हारे पिता को-तुम्हें वापिस बुलाने का शाही-आदेश दे देंगे। उन्होंने लिखा है-बेटे बीच में समय बहुत कम है। इसलिये तुम और शहनाज जितना अपने को समेट सकते हो-समेट लो। हो सके तो शहनाज को वहीं रहने देना-क्योंकि मैं चाहता हूँ-तुम्हारे अंदर युद्ध-क्षेत्र में भी घर लौटने की चाह बनी रहे। उसकी इबादत तुम्हें मौत के मुँह से निकालकर जिंदगी के निकट करती रहेगी। साथ ही उन्होंने एक ड्राफ्ट भेजा है-जिससे शहनाज आराम से अपना जीवन बसर करती रह सके। उन्होंने यह भी संकेत किया कि हो सके तो शहनाज को अभी विवाह-बंधन में न बांधे। पिता के हृदय की हूक स्पष्ट थी इसमें...तुम्हारे पिता के लिये यह एक चुनौती थी। तुम तो सदैव युद्ध में जाने के लिये उतावले रहे हो-किंतु माता-पिता के हृदय की थाह कोई नहीं हो सकता-मेरे राज!
जिस लहु-माँस से तुम्हारी माँ तुम्हें सींचती है उससे दूर होना या सोचना-नाखून से माँस का उधेड़ने के बराबर होता है। यह पीड़ा कहीं बहुत दूर अंदर तक सालती है। इसमें माता-पिता की कायरता नहीं-उसी रक्त का खिंचाव होता है-जो सदैव तुम्हें जोखिम में पड़ने में सचेत करता रहता है। यों भी दो देशों के बीच-किन्हीं राजनैतिक कलाबाजियों की बदौलत हवस का युद्ध जब छिड़ता है तो मासूम निरीह बच्चे इस युद्ध की (निधा) आह्यतइ क्यों बने। क्यों वे राजनितिज्ञ-कला बाज
अपनी संतानों को इस यज्ञ में नहीं धकेलते। अगर इतना ही पवित्र यज्ञ होता है तो पहले उन्हें अपनी बलि देनी चाहिये जो इस यज्ञ के कारण बनते है...। अगर किसी देश की स्वतंत्रता-परतंत्रता की भावना उस युद्ध के साथ जुड़ी हो-तो कहानी अलग हो जाती है। धरती माँ का ऋण चुकाने के लिये-तो हर कोई कटिबद्ध हो जायेगा। मैं अपने इन एकांत क्षणों में तुम्हारे लिये प्रार्थना करूँगी कि धरती पर ऋण जो तुम्हारे कंधों पर है-तुम उसे चुका सको।
शहनाज समझ नहीं पा रही थी कि पिता ने ऐसा क्यों लिखा है।
मैंने जब उसे स्थिति की वास्तविकता की ओर दृष्टि डालने का संकेत किया तो वह सचमुच काँप उठी।
नहीं-नहीं। कुछ भी हो- मैं विवाह करूँगी - जो होगा - वह मेरी तकदीर होगी। एक बार वे मेरे हो जाएँ- तब मेरी साधना, मेरा प्यार क्या उन्हें मुझ से दूर कर सकेगा।
शहनाज! जैसे अंदर-बाहर से भर-भर उठती थी...उस अन्चीन्ही वेदना की दाह से...
मैंने उसकी गाल पर टिहोका देकर उसे हँसाया...अब तो विवाह की तैयारी करो और कुछ मत सोचो। घबराती क्या हो!
वह मेरी ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देख रही थी...। क्योंकि वह जानती थी-कि तुम उस बात के लिये नहीं मानोगे-क्योंकि तुम्हारे पिता को यह आशा ही नहीं-एक मानवीय संवेदना है।
मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर-आँखों के संकेत से समझा दिया-कि तुम जरूर मानोगे और एक आश्वासन भी बिना-सोचे समझे दिया-कि मैं उसे समझाऊँगा।
शहनाज तो आश्वस्त-सी होकर चली गई थी। पर मैं वही अवाक-सी बैठी रही थी। सोच नहीं पा रही थी कि किस अधिकार से-और किस जिगरे से तुम्हें मनाऊँगी-ऐसा लग रहा था जैसे कोई जानबूझ कर अपना मुक्तदान कर दे। मुझे लगा है एक बार में दधीचि हो गई हूँ...।
इस सबकी कल्पना करना-मेरे लिये कितना त्रासद-दायी हो सकता है-मैं कैसे समझू-कैसे समझाऊँ अपने आप को भी-उस पर शहनाज को आश्वासन दे रही हूँ। कच्चे किनारे पर खड़ी होकर-डूबने से भय खाने वाली बात है। मेरे अपने पैरों तले जमीन नहीं है।
तुम्हारे लिये-अब-आज क्या कहूँ-शब्द ही चुक गये है-मेरे-।
भयाक्रांत हूँ मैं-
तुम्हारी-
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