श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 35
मेरे राज!
तुम से क्या छिपाऊँगी। जब से शहनाज से यह समाचार मिला है कुछ अंदर ही अंदर रुलाने लगा है। कौन-सा खलाब भर दिया है इस सूचना ने कि कुछ घाव जैसे रिसने लगे है। एक अकेलापन-सा मेरी भरी-पूरी जिंदगी में एक खालीपन लेकर आया है। अंदर से केवल उदास ही नहीं हुई हूँ बड़ी बेगानी-सी दिखने लगी हूँ स्वयं को। एक लावा-सा उबल रहा है जो मुझे धीरे-धीरे लीलता जा रहा है। तुम्हारे नमस्कार में उठे-युगल-हाथ-तुम्हारी आँखों में चमकता हुआ एक अनोखा नूर-शायद बहुत दिन तक मेरे निकट अब नहीं रहेंगे। एक कोमलता का वरदहस्त धूप-छाया बनकर अस्त हो रहा है। मेरे आसपास लगता है, अजनबियों के जंगल उग आये है।
प्राण! यों भी अपनों ने इतना तोड़ दिया है कि कहीं जुड़ना भूल गई हूँ...विश्वास इस कदर टूटे हैं कि इस शब्द से विश्वास उठ गया है। मालूम नहीं-जीवन की वास्तविक परिभाषा क्या है। लोग जीवन की किस परिभाषा को लेकर चलते हैं। किन मान्यताओं को लेकर जीवन-जीते है। मुझे तो आज तक यह गणित समझ नहीं आया। उनकी परिभाषा शायद स्वार्थ के शब्द से निर्मित होकर-उसके अर्थ शब्द पर आकर अपनी अन्विति पा लेती है।
मैं तो केवल इतना जानती हूँ कि संसार में इन स्वार्थ-भरी उपलब्धियों का जीवन-पानी के बुलबुले जितना ही रहता है। इसीलिये मुझे इस महासागर का उथलापन-व्यापता नहीं। मैं भौतिकता के मुट्ठी में बांधकर नहीं रख पाती। मेरे निकट जीवन का अर्थ बाँटना है। उसमें आत्म-विभोर होकर उसे सिर पर ओढ़ लेना नहीं। मैं इस सागर में हीरे-मोतियों की जगह, कुछ ऐसे अनमोल कण ढूँढ़ने की खोज में हूँ-जिसमें कहीं एक स्नेह की किरण, एक ममता की लौरी, एक विश्वास का स्वर सुनाई दे सके। प्रकृति की सुकुमार मुस्कान जहाँ भी मुझे मुस्कुराती दिखती है-वहीं मुझे विभोरकर अपने में बाँध लेती है। मैं यह भी मानती हूँ कि यह मेरे मन की एक काल्पनिक-स्वपनिल खोज है-या मेरी आत्मा का अर्नगल प्रलाप है-अन्यथा दुनियाँ में यह सब कितना सच हो पाता है-सब जानते है। मैं स्वयं भी न जाने किन अंधेरों में पड़ी अपने ही घेरों में घिरी हूँ। ये घेरे जिनसे न उबरना चाहती हूँ-न घिरना चाहती हूँ...यह विडम्बना नहीं तो और क्या है।
तुम इस सच्चाई को तो जानते ही हो कि सच्चाई को गाँठ में बाँधे रखना ही आज सबसे बड़ी वंचना है-या यों कहो-पीड़ा है। सच्चाई की कीमत बहुत बड़ी होती है और आदमी को यह कीमत न जाने कितनी बार-और कितनी कुलोचे भरकर चुकानी पड़ती है-एक ही जिंदगी में। न जाने कितनी बार झूठ की शालाखों पर चढ़कर अपनी सच्चाई का सबूत पेश करना पड़ता है। यहाँ झूठ को सच कर देने की कला ही सबसे बड़ी कला मानी जाती है इसीलिए सत्य को सत्य कहलाने के लिये कितने बड़े-बड़े साक्ष्यौ की आवश्यकता पड़ती है। सफेद को सफेद कहने के लिये साक्ष्य चाहिये आज!
यह सब तुम्हारे संदर्भ में भी कितना सच हो उठा है। आज तुम्हारे माता-पिता की ममता अपने ममत्व को छुपाने के लिये झूठ के आवरण ढूँढ रही है। कभी-कभी ऐसे सच-रख पाना भी कितने कड़वे हो उठते है।
यह सच है कि तुम पायलेट रह चुके हो...यह भी सच है कि तुम्हारे देश को तुम्हारी जरूरत है। यह भी सच है कि माँ की ममता संतान की रक्षा के लिये कवच बने रहने के लाघव में कितने झूठ बोल सकती है। तुम्ही बताओं जब सच और झूठ ऐसे तराजू में तुलने लगे हों-तो कौन-सा सच तुम्हारी जिंदगी का सच बनने योग्य है। अंदर-बाहर उठते-बैठते, आते-जाते-यही सोच मुझे खाली किये जा रही है कि वह कौन-सा रूप है सच का जो वास्तव में सच है और कौन-सा किनारा झूठ...।
शायद नदी को दोनों किनारे चाहिए तभी उसके बहाव को सन्तुलित-बहाव मिल सकता है। क्या यही जीवन का वास्तविक द्वंद नहीं है जिसमें से हम रोज गुजरते है-रोज उलझते है और सुरंग पार तो कर लेते हैं पर बाहर निकल कर-हम खाली हाथ होते है।
कहीं कोई निर्णय-इसमें ले सको-तो बताना-प्राण! मुझे भी अपने जीवन के द्वंद में एक राह मिल जायेगी।
आज जी चाहता है, एकांत में सामने बैठकर केवल तुम्हें निहारता रहूँ। केवल आँखों में निहारना कैसा होता है...जानते हो! जब मन-प्राण से मनुष्य अपने मन की मूरत को आँखों में उतारकर-कौतुक से-उसको देखता रह जाता है-विस्फारित...औचक नयनों से...बस कुछ वैसा ही होता होगा...जैसे शून्य में तुम उस अदृश्य में आँखें गड़ाये हो...पर ऐसा भी कहाँ संभव हो पाता है।
असंभव के प्रति ही हमारी ललक क्यों दौड़ती रहती है...प्राण।
- एक असंभव प्रति...
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