श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 36
हृदयेश!
कभी-कभी तुम्हारी कल्पना एक स्वप्न की कल्पाना-सी बन जाती है, जैसे नँगे पाँव आंगन में चलने पर लगता है कि कहीं मुड़कर बचपन की देहरी को फिर लांघ रहे है। तुम्हें देखकर लगता है कि कहीं किशोरावस्था का कोई अधूरा स्वप्न मूर्त रूप धारण करके बादल की धुंध-सा उठ आया है। किंतु किशोरावस्था की कच्ची उम्र का रंग-अन्य सब रंगो को ढक लेता है...और कहीं किसी का स्वप्न आप स्वयं भी बनते है। कोई आप का स्वप्न बनना चाहे तो आप झटकते रहते है। वह किसी की अनाधिकार चेष्टा-सा लगता है। क्योंकि तब आप उम्र के राज-सिंहासन के राजा होते है-उम्र आप के नीचे होती है...आपका यौवन-लावण्य भरा रूप आपके बादियाँ होती है, आप उनके दम पर सबको नचा सकते है। मुझे भी वे सपने याद आ रहे है...वे मेरे आसपास तितलियों से मंडराते सपने, वे रंग-बिले कानों में रस घोलते शब्द। वे पतंगों की चिंदिया पर उड़कर आते-छोटे-छोटे मीठे संदेशे। वे कर्ण-कुहरौं को संगीत-सी भर देने वाली सीटियाँ। तब उन चिंदियों को सपने देखने वालों की आँखों के समक्ष कतरा-कतरा कर हवा में फुर्र उड़ा देना ही सार्थक लगता था। कोयल की सी कुहू-कुहू-स्वरों को सुनना चाहकर भी कानो पर अँगुलियाँ रखकर न सुनने का स्वांग करना ही बड़प्पन लगता था। लेकिन जब उम्र आप के ऊपर आ जाती है, तब वे सारे सपने सारी खिड़कियाँ बंद हो जाती है और वे सपने बादल बनकर दूर क्षितिज में विलीन हो जाती है। तब छाया के पीछे-पीछे भागते रहने की स्थिति हो जाती है और वे तिरीहित क्षण कभी पकड़ में नहीं आते-क्योंकि वह भाप बन चुके होते है। वे विलीन हुये क्षण फिर कभी पकड़ में नहीं आते। तब कभी उनका सुखद-स्पर्श आप के नसीब में लौटकर नहीं आता। क्योंकि वह सुनहला उम्र का पंछी पिजड़ा तुड़ाकर भाग चुका होता है।
आज ऐसा ही एक स्वप्न मरे मानस में उभरकर मुझ पर अपना श्राप दुहरा रहा है। किसी ने कहा था कभी तुम्हारा भी सपना कोई चूर-चूर कर डाले। तुम्हारा भी दिल टूक-टूक कर बिखर जाये। इसे ही श्राप कहते है। यहीं वरदान मिलता है और यही अभिशाप। अन्तरिक्ष में हमारे कहे शब्द सदैव के लिये-कहीं अंकित हो जाते है और साक्षात होने के लिये समय-स्थान ढूँढ ही लेते है। इसीलिये कहते है- कि कभी-भी कोई अपशब्द मुँह से न निकालो-कहीं-न-कहीं पूरे होते है-मुँह से निकले हुये शब्द।
मैं आज सोच रही हूँ-अपने दायरो की सीमा में घुटकर जीना क्या होता है। अगर उस स्वप्न ने अपने दायरे तोड़-दिये होते-तो शायद उसका स्वप्न पूरा हो जाता। पर हमारे आसपास लगी हुई-दायरों की कटीली झाड़ियाँ-हम कहाँ लाँघ सकते है। हमारे स्वप्न-आँखों के पानी में ही दफन हो जाते है। उनका मरना-ऐसा अलिखित होता है कि समय बीत जाने पर भी-उनकी पड़ा खरोचौ को हम सहला नहीं सकते।
आज मैं समझ रही हूँ कि जो कुछ आदमी-अपने अहम में जिंदगी के मुहानों पर झटकता आता है-कालान्तर में वही सब उसे झटकता है। जैसे आज न मैं पीछे मुड़कर बचपन की कोई देहरी लांघ सकती हूँ-न वर्तमान से उतर किसी भविष्य के आंगन में पैर रख सकती हूँ। केवल इस नियति के श्राप से अपना-आज भोग सकती हूँ...।
कहीं तुम्हीं वह श्राप तो नहीं हो कहीं।
-एक श्रापिता...।
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