श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 37
मेरे सपन,
कल रात मैंने एक सपना देखा है-जो मेरी जागती आँखों में किरकिरों की तरह चुभ रहा है। सपने-सुंदरता के पर्याय माने गए है...झील की थरथराती छाया की तरह-उनकी पूरी आकृति भी आँखों में नहीं बन पाती कि वह टूट जाते है-लेकिन उनका बिंब-जो आँखों में शेष रह जाता है, वह बिंब ही उलझन बनकर मानस में तिरता रहता हैं स्वप्न तो मन की एक काल्पनिक स्थिति है प्राण...इसलिये भी मैं उन्हें केवल सौन्दर्य से नहीं बाँधती। यह तो एक पलायन है यथार्थ से। सुखद सपने उतने नहीं बांध पाते जितने दुःखद सपने आपको देर तक दूर-तक अनमन किये रहते है। मालूम नहीं किन सपनों का-किन मनोवृत्तियों से जुड़ाव होता है। कभी-कभी मुझे फ्रायड की थ्योरी ठीक लगती है कि अंदर के खलाव ही सपनों में उभरकर आते हैं-कभी संपूर्ण रूप में-तो कभी खंडित रूप में-।
समझ में नहीं आ रहा कि पहले सपना बताऊँ या उससे जुड़ा हुआ अपना मानसिक द्वंद...। कैसे तुम्हें ठीक से समझा पाऊँगी-मालूम नहीं। एक तरह से तो अच्छा ही है कि मेरी भाषा की प्रेषणीयता तुम्हारे समक्ष शून्य के बराबर है-अन्यथा मेरे व्यक्तित्व का कोई न कोई हिस्सा टूट-टूट कर तुम्हारे सामने बिखरा पड़ा होता...एक तो मैं उस अपनी ग्लानि से आहत होती दूसरा तुम्हारी आँखों में उभरा हुआ दैन्य भरा खलाव...मुझसे सहन न होता। इसीलिये जब भी तुमसे बतियाने का मन होता है, इन पत्रों द्वारा तुमसे खुलकर बतिया लेती हूँ...। एक दिन जब इसके कुछ अनुवादित अंश तुम्हें सुनाऊँगी-तो नहीं जानती-उस घड़ी तुम्हारी आँखों को कैसे झेल पाऊँगी...।
यह भी जानती हूँ कि तब भी उनकी गहनता-तुम्हें न छू पायेगी किंतु फिर भी भावनाओं के अपने पंख होते है-जिन पर वह उड़कर पहुँचने वाले के गले लग ही जाती है...यों मेरे लिये उनका न पहुँच पाना ही वरदान है।
तुमसे स्वप्न की बात कर रही थी। इसी द्वंद में अभी भी हूँ कि अपने व्यक्तित्व का वह हिस्सा-जो टूक-टूक बिखर चुका है-तुम्हारे समझ रखूँ भी-कि नहीं ।
अच्छा! इस पर थोड़ा और सोच लूँ। व्यथा तो यों भी अकेले ही झेली जाती है-उसमें किसी को अपना साझीदार बनाना-अपनी ही खिल्ली उड़ाने जैसा हो जाता है। फिर भी दूध उफनता है नदी-किनारे तोड़ती है-बादल बरसते है...सृष्टि के क्रम में इस टूटने के भी कहीं अर्थ तो है ही-अच्छे या बुरे...।
कल...चलो कल-अवश्य तुम्हें इस विषय में कुछ कहने का साहस जुटाऊँगी...।
- एक द्वंद्वात्मक बोध
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