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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 38


मेरे आकाश,

कल बीच में ही कलम रोक देनी पड़ी क्योंकि अंदर बहुत से सवाल थे-जो मथ रहे थे मेरे मानस को...। आज थोड़ी स्वस्थ एवं तटस्थ तो हूँ...पर नहीं जानती कितनी तटस्थता से तुम्हें सब कह पाऊँगी...।

तुम भारतीय संस्कृति और इतिहास के विषय में कितना जानते हो-नहीं जानती। लेकिन एक बार तुम्हारें मुँह से वेदो के श्लोक सुने थे। वे इस बात के साक्षी है कि कहीं हमारी इस संस्कृति से तुम जुड़े हुये हो। यों भी वर्षो से जो यहाँ रहते-रहते तुम ने यहाँ की किवदन्तियों एवं त्योहारों के माध्यम से सीखा होगा-वह तुम्हें मेरी इस व्यथा को समझने में भरपूर सहायक होगा...।

प्रह्लाद का नाम जानते हो न। उसे हम भक्त-प्रह्नाद के नाम से जानते है। धर्म-ग्रंथों में वह विश्वास का प्रतीक है। होलिका की गोद में बैठकर भी आग उसे जला नहीं सकी-यह उस विश्वास को गहराने की कथा है। वास्तव में प्रह्लाद क्या था। वह एक सच्चाई थी राज। जिसे उसके पिता का अहम्, उसके पिता की नृशंसता भी न मिटा सकी। वह एक ज्योति थी, जिसे चटकती आग की लपटें भी न बुझा सकी। बड़ी आग के अलाव के पास भी दीपक अपनी लौं में जलता रह सकता है। यही उस कहानी का सत्य है और सत्य है और शायद यही मेरा भी...।

मेरे जीवन में-मैं उन्हीं परीक्षाओं से गुजरती रही हूँ। मुझे बार-बार लौह-सलाखों पर चढ़ाकर-झुलसाने की चेष्टाएँ की गई हैं-किंतु मैं झुलसने के बजाय-उनके अहम् को रौंदती फिर जिंदा हो जाती रही हूँ...जिंदा तो हो जाती रही हूँ...जिंदा तो हो जाती हूँ-लेकिन वह जीना कैसा होता है। कौन जानता है...अपने ही जन्मदाता की बनाई हुई लौह-सलाखाओं पर से उतर कर जिंदा लौटना और फिर अगली परीक्षा के लिये तैयार हो जाना-कैसा होता है...यह मैं ही जानती हूँ...।

मेरे जीवन का यही श्राप है। यही सबसे बड़ी विडम्बना है कि मेरे सबेरे भी-अंधेरो में ही मुँह खोलते है। मेरे आंगन भी उस अपनी आग में झुलस जाते है। तुम्हें कैसे बताऊँ कि क्या खोया होगा-उस प्रह्लाद ने-उस सत्य की परीक्षा में खरा उतर कर भी...।

आज वही प्रल्हाद मेरे सपने में कैसे उतर आया। मैं स्वयं उसे लौह-खंभ के अग्नि-कुंड पर चढ़ते देख रही थी जैसे साक्षात-हूबहू...। थोड़ी देर में-मैंने देखा-वह मैं ही थीं-बिल्कुल मैं...और झटके से मेरी आँख खुल गई...। मुझे पसीना आ रहा था...जैसे अभी भी वह अग्निकुंड मेरे आस-पास दहक रहा हो और उसकी उष्मा मुझे पसीने से सरोबार कर रही हो...।

एक अग्रिदाह-

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