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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 39


राज...!

कल से सोच रही हूँ कि जो मैंने कल तुम्हें बताया है, वह तुम्हारे लिये तो शायद एक पहेली बन गया होगा। एक सवाल उभरा हुआ-मैं देख रही थी तुम्हारी आँखों में...। तुम जब अपने परिप्रेक्ष्य में किसी चीज का मूल्यांकन करते हो तो सच पूछो उस समस्या का संतुलन बिगड़ जाता है। सभी के अनुभव, सभी की जिंदगियों के इतिहास एक नहीं होते। बाग में गुलाब के साथ ही कहीं-कैक्टस भी उगते हैं। गुलाब के अपने ही कांटे कम होते हैं! कमल और कीचड़ का सानिध्य भी अटूट है-हर सच्चाई की तरह। तुम्हारे लिये माँ और पिता की जो अनुभूत दिव्य सार्थकता है, हो सकता है वह मेरे लिए अनुभूत सत्य से परे हो-मेरे सत्य से शायद मेल न खाती हो। फिर भी दोनों स्थितियों का सत्य निर्विवाद है-इसे नकारा नहीं जा सकता। आज जब उसी सत्य को किसी कटुता में मेरी आँख रिस आई-तो मेरी एक सखी-मुझे बताने लगी-धार्मिक ग्रंथो में मानते हैं कि कभी-कभी आकस्मिक स्थितियों में गलत आत्मा को गलत जगह जन्म मिल जाता है। तब वह आत्मा उम्र भर अभिशापित रहती है। मुझे लगता है मैं वही एक अभिशापित एवं निर्गत आत्मा हूँ जो वायुमंडल में भटक रही है। मैं हर जीवन में एक अभिशाप भोगने के लिये-श्रापित हूँ और सदैव गलत-गणित का शिकार होती रही हूँ...। ध्रुव को भी माने उच्छित समझकर जंगल में भेज दिया था-यधपि वह तो सौतेली माँ की स्वाभाविक लालसा थी-प्राण! उसी की कोख में जन्म लिया बेटा-राजगद्दी पाए-ऐसी प्राकृतिक इच्छा तो कैकयी ने भी की थी। पर क्या एक ही कोख ने जन्म पाए बच्चे भी ऐसे व्यवहार के भागी हो सकते है-। मैंने तो किसी राज्य की इच्छा या कल्पना भी नहीं की थी। मुझे तो किसी अन्यथा सुख-वैभव की चाह नहीं थी। पर यह सब कैसे हो गया कि ध्रुव का भाग्य मेरा हो गया। प्रल्हाद-सी अग्नि-परीक्षाओं से मेरा अस्तित्व-अपना वजूद पा सका। ध्रुव के तो पिता ने स्वयं जंगल में पुत्र की थाह ली थी लेकिन यहाँ तो सारी ग्रह दशाये ही झूठी पड़ गई है। मालूम नहीं राज! आज तुम्हें-क्या-क्या कहती जा रही हूँ। लगता है मैं स्वयं अपनी थाह-एवं राह भूल गई हूँ...। क्या कहना चाहती हूँ और क्या कह रही हूँ
...। शायद कहीं विश्वासों के टूट जाने की चटक-मुझे अंदर तक तोड़ गई है-राज! मैं दिन-पर-दिन अपने अंदर के युद्ध में हारती जा रही हूँ टूटती जा रही हूँ। किसी भी विश्वास की डोर जितनी भी मजबूती से पकड़ने की कोशिश करती हूँ-उतनी ही वह पैरों तले की जमीन से खिसकती चली जाती है। अब तो उस तार का एक टूटा हुआ-एक छोर ही मेरी कनिष्ठका में लिपटा रह गया है-जो बार-बार नासूर की तरह दुःखता है।

चलो! आज बस...आज तुम्हें और नहीं दु:खाऊँगी। रोज-तुम्हारी उलझनों को सुलझाने की बजाय-अपनी उलझने जोड़ती रहती हूँ...।

तुम्हारे चेहरे पर उगे प्रश्नों भरे उतार-चढ़ाव भी मुझे मथने लगे है...।

बस! एक धुन-सा लग गया है कहीं अंदर-कि कहीं तुम्हें युद्ध में जाना ही न पड़े...।

- उदासमना

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