श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 40
राज मेरे,
मेरी सारी संवेदनाओं की थाह तुम तक आकर एकाएक थम जाती है। आसपास जो जंगल उग आये है, उनमें तो जंगली सियार और गीदड़ ही दिखाई देते है। कोई भी गरज कर सच्चाई की सत्ता स्थापित करे, ऐसा नजर नहीं आता। सभी रंगे सियार है, जो बरसाती नालों की तरह बह जाते है। उफनते हैं लेकिन बरसात के बाद ही आग की तरह बैठ भी जाते है। वे बैठने वाले अपनी सर्पीली चालों से दूसरों को चित्त करते रहते है। यही उन के जीवन ध्येय है। मैं भी कुछ ऐसे ही शतरंज के मोहरो के बीच निहत्थी फंस गई हूँ...। कहीं भी निकलने का कोई किनारा नहीं है-केवल सम्बल है तो अपनी उस दृढ़ धर्मिता का-जो मोहरे की तटस्थता लिए खड़ी है। जो मोहरा बनाकर-मुझे चलाया गया है, मैं चली नहीं हूँ। अभिमन्यु की तरह कूटनीति के चक्रव्यूह में फंस कर बाहर का रास्ता अवश्य भूल गई हूँ...। इस दुनियाँ की राजनीति में अपनी सादगी लिये जीने का जो दंभ भरती थी, वह टूटता बेशक जा रहा है लेकिन उसी भरभराते किनारे पर खड़े होने में ही मुझे जीवन का सार मिलता है। बस मुझे मेरी इसी आत्मिक सम्बल का विश्वास चाहिये-फिर आधियाँ क्या बिगाड़ लेगी मेरा...।
लगता है समय आ गया है जब मुझे अपने ही ऊसूलौ की नीलामी करनी पड़ेगी...भरे बाजार में...और इसके खरीददार...वह तो खरीद ही लेगे...। दुनिया एक साकार है-कभी खरीदा जाना-कभी बेचा जाना-इस दुनियाँ का धंधा है। पर जिसे अपनी ही बोली लगानी पड़े-वह क्या करे! मैं भटक गई हूँ इस गोरख धंधे में...।
क्या तुम एक मुस्कान भरा संबल बन सकोगे मेरा। सार्थकता उसे मैं दूँगी-राज...।
- एक हारी हुई आत्मा
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