श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 41
मेरी दिव्य ज्योति तुम।
तुम्हारी वह दो भरी अजुरियाँ और आँखों की तरलता भरी मुस्कान-मेरे इस सूनसान जंगल में गुलाब खिला देती है। मेरे जीने के लिये-एक संजीवनी बूटी का काम करती है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने भंवर के डूबते जल में अँगुलि पकड कर तिरते-सागर की सतह पर ला खड़ा किया हो। रेगिस्तान में दो शीतल बूंदों की तरह-रेत के सारे ताप की तरह-मेरे अंदर का लावा कभी-कभी नितांत शांत होकर तृप्ति पा लेता है। केवल तुम्हारी उन तरल-कुछ-कुछ कहती आँखों में एक मोहनी मुस्कान देखकर...।
अंदर से तुम शहनाज के कारण-विवश हो किंतु मनसा-वाचा-कर्मणा से जो तुम अपने देश की मिट्टी से जुड़े हो-उसी जुड़ाव ने तुम्हारे चेहरे पर गुलाल छिड़क रखा है। वही वह दिव्यज्योति है जो मेरे लिये पूजा की उपकरण बन गई है। व्यक्ति-व्यक्ति की पूजा क्यों करता है...ऐसा ही कुछ होता है प्राण...जो लौ की तरह ज्योतित होकर दूसरे हृदय को भी आलोकित कर देती है। मेरे सारे द्वंद, मेरे सारे अभिशाप एक तुम्हारी उस ज्योति से तिरोहित हो जाते है। लगता है कि कैक्टस के जंगल में भी एक गुलाब कितना शाही हो सकता है कि अपनी एक शाही चाल से सारी बाजी उलट देता है। तुम से आती हुई एक ऐसी ज्योति-किरण से ही सारी दुनियाई चालें चित्त हो जाती है। मेरे निकट मत आयो। मुझे हाथ का स्पर्श मत दो। अपने देश की सभ्य-जन्य शिष्टाचार वश मुझे स्नेह का चुंबन भी मत दो-बस एक प्रेरणा बने रहो-यही मेरी प्रार्थना है...।
मेरी अराधनाएँ तुम्हें शत्रु के महायंत्रों की मार के निकट भी न आने देगी...ऐसा मेरा विश्वास है।
कल शहनाज से मिलूगी-
शेष फिर-
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