श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 42
राज!
कल शहनाज तो मिली पर साथ तुम नहीं थे। एक-एक आहट पर मेरी आँखें उद्वेलित होती रही। मैं मुड़-मुड़ कर देखती रही कि शायद तुम द्वार की चौखट पर आकर खड़े हो गये हो। शहनाज! बात करती थी और कहीं खो जाती थी। एक दो बार चौंकी...भी वह-उसने तब गहरी-गहरी आँखों से मेरी आँखों में झाँका भी। मुझे लगा कहीं मेरी आँखों में छिपे चोर को ढूँढ़ने का प्रयास कर रही है। मैं अनमनी हो उठी थी। स्वयं को संभालने में सफल होकर-मैंने अपने उत्तर से तुम्हारा तिलस्म क्षण-भर के लिये अटकने का प्रयास भी किया। आखिर क्या सोचकर मैं तुम्हें अपने मानस में समेटे रख सकती हूँ...।
शहनाज ने तुम्हारे पिता जी की चिट्टी दिखाई-जिसमें उन्होंने तुम्हारे विवाह की सहमति दी है। साथ ही उन्होंने मेहर की रकम भेजी है। शहनाज बहुत प्रसन्न थी-लेकिन उसकी उस खुशी में-कहीं एक अनदेखा-सा भय भी शामिल था। रह-रह कर उसकी आँखों में एक अप्रीतिति-सी उभर आती थी...जो मुझे भी कहीं भयभीत कर जाती रही।
प्रभु करे! शहनाज की और मेरी शंकाये निर्मूल हो। शहनाज सदैव तुम्हारी प्राण-दीप्ति बनी रहे।
पता नहीं क्यों प्राण! कभी-कभी कुछ अनजानी आहटे-मानस में एक सनसनी-सी फैलाती रहती है जो अन्चीन्ही-सी और अनदेखी-सी होती है। मन भरा-भरा-सा है उन बेआवाज आहटों की चौंक से-। पता नहीं-क्या घट रहा है आजकल मेरे अंदर...।
आँखों में विचित्र से भयावह चित्र-उभरते-टूटते गिरते रहते है-क्या है वे...किस अनहोनी के संकेत है-राज...।
भयाक्रांत हूं मैं-
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