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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 43


मेरे अमूर्त तुम!

कभी-कभी ऐसी ही उदासी-सी स्थितियाँ-अपने भरेपन से मन के खलावों में उतर जाती है। हम जिस जीवन को चारो-हाथों-कसकर पकड़े रहना चाहते है, वही जीवन रेत के कणों की तरह भौंची-मुट्टी में से भी कैसे दिन-पर दिन सरकता चला जाता है...हमें उसकी आहट तक नहीं होती-पर एक दिन जब मुट्ठी खुलती है तो सब कुछ झर चुका होता है। हम सूखे ठूंठ की तरह उस बिखरी-धूल को केवल विस्फारित-भौंचक से देखते रह जाते है। तब एकाएक हम उन जीवन के सारे अतीत हुये प्रसंगों पर अपनी दृष्टि की अंगुलियाँ फेर-फेर कर देखते है-कि यह कैसे हो गया...। कितने ही घाव होते है जो उस दृष्टि विहंगम के नीचे-पड़े रिस उठते है। उनमें आत्मा की वे बेतरतीब अदृश्य घड़ियाँ होती है जो उस क्षण अपनी चाबुक से हमें लताड़ती है। हम अपनी अंदर की आवाज को उम्रभर नकारते रहते है, अनसुनी करते रहते है पर आज वह जेसे सौ-सौ डकों की आवाज बनकर हमारे कानों के परदे चीर देती है। क्या ऐसा सब के साथ होता है जान!

विडम्बना यह है कि हम उन घावों पर तो अँगुलि रख लेते है जो हमें दिये गये हैं पर उन के आकड़े भी क्या कभी हम रख पाते है। जो हमने अनजाने औरों को दिये है। जिस दिन हम उन आकड़ों का लेखा-जोखा सीख जायेगे-उस दिन सृष्टि का आधा भवसागर-हम बेखटके पार कर जायेगे। न जाने मुझे दिन-प्रतिदिन यह कैसी वितृष्णा-कैसा विराग-सा होता जा रहा है जिंदगी से। सब कुछ कहीं नैतिक-अनैतिक के चौखटे में फिट करने लगेगे तो सारा इतिहास ही बदल जायेगा। इन प्रश्नों से तुम-में या कोई भी कैसे बच पायेगा। कितना ही पवित्र चौदहवी का चाँद हो-हम तो कालिका की लकीर ढूँढ ही निकालेगे न! मैं इन विद्रूपताओं में अवश हूँ-

- शेष फिर

 

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