श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 44
ऐ-सौन्दर्य रूप!
कभी-कभी लगने लगा है कि तुम मेरी व्यथाओं को उड़ेलने का एक कंधा मात्र हो-बेजान कँधा-अदृश्य कँधा...। वह कँधा जो पीछे मुड़कर या आँख उठाकर नहीं देख पाता...कि किस के आँसू उसकी पीठ को आर्द किये है। एक चट्टान की तरह कैसे मेरा सारा दुःख-तुम अपने में बहा ले जाते हैं। मेरी सारी अनर्गल दार्शनिकता-न जाने तुम्हें कहाँ-कहाँ घसीट ले जाती है। वहाँ शायद-जहाँ तुम कभी जाना भी न चाहो...इस सब के लिये आभारी हूँ तुम्हारी...। उससे भी अधिक आभारी हूँ-तुम्हारी तटस्थता की...कभी कोई प्रश्न नहीं उठाते। कभी मेरे जीवन की उल्ट बासियों का अर्थ नहीं पूछते। उल्ट-बासियाँ जानते हो क्या होती है। जिस अर्थ में-उल्ट बासियों की बात कर रही हूँ-वह कबीर की नहीं-मेरे जीवन की हैं। मैं कबीर कहाँ हो सकती हूँ। मैंने जीवन से विराग नहीं लिया। मैं तो केवल कबीर की कड़वी और सच्ची-जबान की कायल हूँ। उसकी विवेक आँख की प्रशसक हूँ-जो संसार की उल्टबासियों को अपने दोहों में गा सका-और दुनिया को सुना सका। मुझे तो लगता है कि मैं वस्तु-स्थितियों पे परदा डालते-डालते-स्वयं परदा हो गई हूँ...। सच कहने में भी होंठ काँपने लगते है। हर बार जब कागज-कलम उठाती हूँ कि कुछ लिखूँ-कुछ कहूँ-पर हर बार लेखनी जैसे पथरा जाती है। मेरे जीवन के विरोधाभास को बेशक सर्वसम्मति प्राप्त न हो-किंतु सारी दुनियाँ-उल्टबासियों से भरी पड़ी है। इसलिये कोई हिचक मेरा हाथ पकड़ लेती है। कभी-कभी तुम्हारी आँखों में उठा-हुआ ललछौहा-सा स्नेह-भरा प्रश्न मुझे अभिख कर देता है-और कहता है-कह डाल-कह डाल-अपना दुःख और तनिक अपने-आप को हल्का कर ले-और मुस्काना सीख ले।
पर क्या एक बार कह देने से-मुस्काना सीख जाऊँगी। इतना सरल नहीं है एक निश्छल बचपन की मुस्कान को लौटा पाना। तप्ती दोपहरी में फर्श पर पैर जलाकर क्या मिलेगा। अपने अंदर के तहखाने में खोकर क्या निकालूँ-जो तुम्हें बताकर स्वयं स्खलित हो जाऊँ...।
बाँट लेने से बंटता है दुःख-या घटता है दुःख। हां। घटेगा ही क्योंकि तुम अपनी कालिमा-दूसरे की झोली में जो उड़ेल दोगे। यह भी क्या न्याय है। जिसे तुम अपना मानते हो-उसको अपने दर्द देकर छलनी क्यों करना चाहोगे-पर हम कहीं सोचते हैं उस तथ्य पर कभी...।
इसलिये-सोचती हूँ मेरे रहस्य-मेरे अंदर ही मुझे लीलते-छीलते रहे तो क्या बुरा है। यह मेरा कर्म है-यह मेरा भाग्य है-यह मेरी नियति है न जाने कितने जन्मों को-एकत्रित होकर-आज मुझ तक पहुँची है-इसे मैं नहीं काटूँगी तो फिर बोझा बनकर-मेरे कंधे पर लटकी रहेगी-यह अविरल-कथा...।
फिर मैं किसी की कृपा-दृष्टि की महानता में अपनी दीनता भी तो उजागर नहीं होने देना चाहती।
यह मेरा हठ नहीं-मेरे मानस का ही कोई अनजाना-बन्धन है।
बस मेरा विश्वास बने रहना-
- तुम्हारी
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