श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 45
राज मेरे
कल तुम्हारे चेहरे की दीप्ति देखकर विभोर हुई थी मैं-पर आज उसकी कल्पना कर के भयभीत हो रही हूँ...। तुम्हारा जाना निश्चित हो गया है-ऐसा शहनाज ने ही बताया। ईरानी एंबेसी में तुम्हें बुलाया गया है। आज की शहनाज और पिछले कल की शहनाज में कितना अंतर आ गया है। उसके चेहरे की नीली पड़ती नसें-उड़ता हुआ-तिरोहित रंग मेरा मन दहला रहा है।
तुम कैसे रहोगी! इस भाव को-मैं समझाने का प्रयत्न कर रही थी-और वह कह रही थी कि वह उसे-मेरे सहारे छोड़कर जा रहा हैं।
शहनाज की आँखें और गला भर-भर आता था। वह मुझे अपने भरे-भरे गले से अस्फुट शब्दों में समझा रही थी। कि तुम जाने से पहले विवाह भी नहीं करना चाहते और कहते हो कि तुम्हारे बाद-वह अपना कहीं भी विवाह कर ले...। यह कैसी तटस्थता है तुम में प्राण! तुम क्या प्रेम शब्द से ही अनगिरा हो।
तुम्हारे जाने की पीड़ा हम दोनों को संवेदित किये थी-पर जब तुम आए-तो जैसे उस भाव से नितांत विलग एवं तटस्थ होकर बात कर रहे थे।
कमरे का सारा प्रकाश जैसे तिरोहित होकर किसी कोने में सिमट गया था...सारा वातावरण इस नये छाये अंधेरे के नीचे दब गया था। पीली-पड़ी बल्ब की रोशनी-तुम्हारे चेहरे पर गिर कर देश प्रेम के नूर को अवश्य उद्दीप्त कर रही थी और दुबके हुये प्रकाश को बाहों में भरकर कमरे में उछाल देती थी। ऐसे में तुम्हारा प्रकाश-हमारे मन के द्वंद्वों को पछाड़कर उनकी निम्नता उजागर कर देता था।
किंतु आज वह सारी स्थिति एक और ही रूप लेकर मेरे समक्ष प्रश्नों के अंबार लगा रही है। हम सब जानते है कि किसी की हत्या करना या किसी के प्राण हर-लेना-नितांत-नृशंस हत्या है। प्राण लेने जानते है कि किसी की हत्या करना या किसी या किसी के प्राण हर-लेना-नितांत-नृशंस हत्या है। प्राण लेने वाले को मृत्युदंड दिया जाता रहा है। सुना है युद्ध में लोग शत्रुओं की आड़ में अपनों को भी किन्हीं-वैमनस्यों के रहते मार डालते है। मेरे विचार में-दूसरे को मारना हत्या है। शत्रु की हत्या या अपने की हत्या में क्या अंतर है। मुझे तो हर यौद्धा भी एक हत्यारा दिखता है। वह युद्ध में जितनी हत्यायें करता है, उसे उतनी ही बड़ी उपाधियों से सज्जित किया जाता हैं। क्या यही सभ्यता है। क्या यही धर्म है। क्या सचमुच इस सब को नियति मान लेना-या देश प्रेम मान लेने में ही हमारी गति है। प्राण! बहुत से विरोधाभास है अंदर-और बाहर...कभी समझ नहीं आता-नैतिक क्या है और अनैतिक क्या। मैं इन सबमें जैसे घिर गई हूँ...। कोई ऋण नहीं दिखता...तुम...तुम स्वयं इस युद्ध की मिधा बनने जा रहे हो-तुम्हें क्या कहूँ-क्या तुम्हें भी हत्यारा समझूँगी-।
बस और नहीं! चक्रव्यूह में फँसी हूँ...।
शेष फिर...
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